Book Title: Nabhakraj Charitra
Author(s): Merutungacharya, Gunsundarvijay
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 44
________________ ४३ तीर्थ की सेवा करनेकी भावनावाले उस राजा ने गुरुओं को इस के लिए विधि के विषय में पूछा और गुरुओं के सदुपदेश के अनुसार धर्मध्यान में तल्लीन बना हुआ वह राजा त्रिकाल श्री जिनेश्वर की पूजा, पवित्र शरीरवाला बनकर अहोरात्रि नमस्कार महामंत्र का ध्यान करता हुआ, प्रत्येक पारणे के प्रसंग पर साधुओं एवं साधर्मिकों का यथोचित भोजन - जल आदि से सत्कार करता रहा । इस प्रकार उसने दस चोविहार छट्ठ तपपूर्वक एक मास पूर्ण किया । छट्ठपूर्वक के तप के तीसवें दिन ब्राह्ममुहूर्त (रात्रि के अंतिम प्रहर की अर्थात् सूर्योदय के पूर्व की अंतिम ९६ मिनिट के समय ) में उसने नेवले के कद की चार कबरी बिल्लियाँ अपने सन्मुख देखीं थीं । पहले जो देखी थीं उससे अधिक दुबली-पतली । तप के प्रभाव से मेरे ब्रह्महत्या आदि का पाप क्षीण हो रहे हैं ऐसा अनुमान करके अब उसने अट्ठम के पारणे पर अट्ठम का तप आरंभ किया । एक मास के तप के बाद उसने धूसर वर्णवाली कोल अर्थात् बड़े चूहे के कद की चार बिल्लियाँ देखीं, जो पहले देखी हुई बिल्लियों से कहीं छोटी थीं । पूर्व की ही तरह पाप का क्षय हो रहा है ऐसा अनुमान करके अब उसने चार उपवास के पारणे पर चार उपवास इस प्रकार एक मास का तप किया । (छः बार चार उपवास और छ: पारणा) इस तप के अंत में उसे बिल्लियाँ चूहे के समान छोटे कद की तथा श्वेत वर्ण की दिखाई दीं । तपश्चर्या का फल उसे प्रत्यक्ष दिखने लगा तो वह अधिक प्रसन्न हुआ और पाँच उपवास के पारणे पांच उपवास - इस प्रकार पच्चीस उपवास और पाँच पारणापूर्वक एक महीने का तप किया । तप के उनतीसवें दिन अर्ध निद्रावस्था में तथा नवकार महामंत्र का स्मरण करते हुए उसे उस प्रकार स्वप्नदर्शन हुआ 'किसी स्फटिक के पर्वत के प्रथम सोपान पर मैं बैठा था, किसी अत्यंत Jain Education International For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org

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