Book Title: Nabhakraj Charitra
Author(s): Merutungacharya, Gunsundarvijay
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 45
________________ वृद्ध दुर्बल पुरुष ने मुझे वहाँ से नीचे की और गिराया, परंतु मैं तो पहुँच गया दूसरे सोपान पर, फिर तीसरे सोपान पर... इस प्रकार अनुक्रम से मैं पर्वत के शिखर पर चढ़कर मोतियों के ढेर पर पहुँच गया ।' उसने सद्गुरुओं को ये सारी बातें बताई तथा उसका फल पूछा । गुरुओं ने बताया, "हे भव्यात्मन् ! सुनो ! स्फटिक का पर्वत मैंने श्री जिनेश्वर द्वारा उपदेशित धर्म, प्रथम सोपान है मनुष्य अवतार । यहाँ तुम्हारे पूर्वकृत कुछ शेष अंतराय कर्म तुम्हें नीचे पछाड़ते हैं फिर भी तुम धर्म-प्रयत्न एवं सत्य के सहारे गुणप्राप्ति में प्रगति करोगे तथा यहाँ से आयुष्य पूर्ण करके अच्युत देवलोक में देव बनोगे । यह है दूसरा सोपान तथा केवल ज्ञान है तीसरा सोपान अर्थात् वहाँ से च्यवित होकर अमूल्य मानव भव प्राप्त कर तुम सुंदर चारित्रधर्म के सोपान चढ़कर मुक्तिमहल में पहुँच जाओगे।" "परंतु मैं छद्मस्थ हूँ इस कारण से तुम्हारे पूर्वकृत कर्मों को जान सकता नहीं हूँ । इसलिए महाविदेह में विचरण कर रहे श्री सीमंधरस्वामी भगवंत से तुम पूछो ।" गुरुदेव बोले । राजा ने पूछा, "गुरुदेव ! श्री सीमंधर स्वामी का उत्तर मुझे किस प्रकार प्राप्त हो सकता ह र तप तथा पुण्य वाक्य गुरुने राजा के ज्ञाता "राजन् ! तुम्हारे तप तथा पुण्य के प्रभाव से तुम्हें शीघ्र ही यह उत्तर भी प्राप्त हो जायेगा ।" यह वाक्य गुरुने राजा के विशेष लाभ के हेतु ही कहा था, अन्यथा मनःपर्यव ज्ञानी, शास्त्रों के ज्ञाता वे केवलज्ञानी को प्रश्न पूछकर स्वयं ही सब कुछ जानने को समर्थ थे । अपने अंतराय कर्म अभी शेष हैं और उसके लिए तप ही सर्वश्रेष्ठ उपाय है ऐसा समझकर नाभाक राजा ने पारणे के दिन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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