Book Title: Nabhakraj Charitra
Author(s): Merutungacharya, Gunsundarvijay
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 50
________________ ४९ तथा जिसने अपने मन से सारा पौद्गलिक ममत्व दूर किया है वह ( अथवा जिसने संपूर्ण मलिनभाव दूर किया है ऐसा वह) राजा गुरुओं के साथ अपने नगर की और चला । उस समय का उसका विनम्रताभाव भी अत्यंत प्रशंसनीय था । उसने पैरों में पादत्राण कुछ भी पहना न था, गुरु की बाईं और रहकर अर्थात् गुरु को अपनी दाहिनी और रखकर मार्ग पर चलता हुआ वह गुरुओं को ऊँचीनीची भूमि के बारे में बताता रहता था । इस प्रकार गुरुभक्तों में मानों वह अग्रणी बना था । चंद्रादित्यदेव भी गुरु की सेवा तथा सान्निध्य के लिए उत्सुक था ही । इसलिए उसने सेना के प्रमाण का छत्र बनवाकर सेना पर रखा, सद्गुरु और राजा की दोनों और नाचता - कूदता वह चामर ढालता रहा, संवर्तककाल के पवन से राजा तथा गुरुओं के मार्ग से कंटक आदि दूर करता रहा, सुगंधी जल की वृष्टि के द्वारा मार्ग में उड़ती धूल को बंद कर दिया, पाँच वर्ण के सुवासपूर्ण दैवी पुष्पों को भूमि पर बिछाया और सब से आगे रहकर एक योजन ऊँचे ध्वज को फहराता रहा । " इन दोनों की जो अवगणना करेंगे वे स्वयं प्रलय को प्राप्त करेंगे तथा इनके चरणकमलों में झुकनेवाले महान लक्ष्मी एवं शोभा के द्वारा वृद्धि प्राप्त करेंगे ऐसी घोषणापूर्वक आकाश में दैवी दुंदुभी बजाता था । " मार्ग में हाथों में उपहार लेकर अनेक राजा वह नाभाक राजा का सत्कार कर रहे थे । इस प्रकार प्रवर्धमान भव्य शोभावान एवं लक्ष्मीवान राजा अपने नगर में पहुँचा । गुरुओं ने भी राजा को सम्यक्त्व सहित बारह अणुव्रत के विषय में समझाया और उन व्रतों के पालन के लिए उसे प्रेरित किया । गुरुजन नगर के बाहर उद्यान में रहे । नाभाक राजा को देव का सान्निध्य की प्राप्ति थी, इसलिए वासुदेव की तरह उसने दक्षिणार्ध भरतक्षेत्र के तीन खंड आसानी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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