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"एकेकुं डगलुं भरे, शत्रुजय समुं जेह, ऋषभ कहे भव क्रोडना कर्म खपावे तेह ।"
शत्रुजय तीर्थ अब केवल चार योजन दूर था । कांचनपुर नगर में सरस्वती नदी के तट पर भोजन करने के बाद समुद्र का काफ़िला आराम कर रहा था । उस समय एक आश्चर्यजनक घटना हुई । वहाँ का राजा अपुत्र मर गया था, इस वजह से दूसरा राजा खोजने हेतु राज्य के मंत्रियों द्वारा अधिवासित पंचदिव्य करवाये गये थे । पाँचों ने आकर समुद्र को आनंदपूर्वक राज्य प्रदान किया । अब वह समुद्र में से समुद्रपाल भूपाल बना । गज पर स्थित, मस्तक पर श्वेत छत्रवाले, जिसकी दोनों और चामर ढोये जा रहे हैं ऐसे, नगरजनों से अनुसरित, कवीश्वरों के द्वारा जिसकी बिरुदावलियाँ गाई जा रहीं हैं ऐसे समुद्रपाल राजा शोभायमान बना था । राज्य के वाजिंत्रों की ध्वनि के द्वारा ब्रह्मांड का मंडप मानो स्वरमयसंगीत से परिपूरित हो रहा है । ऐसे समय में, जहाँ वंदनवार हवा में लहरा रहे हैं ऐसे, ऊँची पताकाओंवाले, सुंदर दृश्य एवं नाटक जहाँ मंचित किये जा रहे हैं ऐसे, रंगीन पानी से सिंचित भूमितल पर सुंदर रंगोलीवाले, विचित्र मंडपों से शोभित दुकानों की पंक्तिवाले नगर में जयघोष सहित उत्सवपूर्वक राजा ने प्रवेश किया ।
राज्य का कार्य पूर्ण कर अपने परिवार एवं सैन्य के साथ बड़े आडंबरपूर्वक राजा शत्रुजय पर्वत पर चढ़ा । शास्त्र में बताये गये ठाठपूर्ण स्नात्र आदि भेदों के साथ उसने भाव-भक्ति एवं श्रद्धा सहित विधिपूर्वक श्री आदीश्वर प्रभु की भव्य पूजा की । तीर्थ पर महापूजा-ध्वजारोपण आदि कार्यों में उसने इतना अधिक दान दिया कि उसे देखकर दानेश्वरी मेघ भी लज्जा से श्याम हो गया । उसने जिनेन्द्र भक्तिस्वरूप अष्टाह्निक महोत्सव किया तथा नागकौटुंबिक के नामपूर्वक जगत्-पति श्री आदिनाथ की पूजा-आभोग आदि
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