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है अन्यथा उसका कर्ज़ बना रहता है तो उसे पुण्यप्राप्ति की बात तो संभव ही कहाँ ? ( वह इस प्रकार पापी बनता है ।)
अब अगर मरनेवाले को अंत समय पर (पुत्रादि द्वारा ) सुकृत सुनाया न जाय, परंतु वह जिस गति में गया हो, उस गति में अगर वह ज्ञान से जान सके कि उसकी मृत्यु के बाद स्नेही-संबंधियों के द्वारा उसे सुकृत का दान दिया गया है और उसकी अगर वह श्रद्धा - अनुमोदना करें तो भी उसे सुकृत का लाभ प्राप्त होता है ।
इसके अतिरिक्त मरनेवाले स्वजन के नाम से अगर ( पुत्रादि) स्वजन सुकृत करें तो वह सुकृत मरनेवाले व्यक्ति को पहुँचता नहीं है, अलबत् मृत व्यक्ति के पीछे सुकृत करनेवाले स्वजन इस प्रकार व्यवहार के द्वारा मृत व्यक्ति के प्रति अपनी प्रीति - भक्ति प्रदर्शित करते हैं । संक्षेप में मनुष्य के मरने के पूर्व ही स्वजन आदि सुकृत का दान करें यही श्रेयस्कर है ।
व्यंतरदेव के जाने के बाद पुण्य के फल को साक्षात् जाननेवाला उसका अनुभव करनेवाला राजा उसमें ही अधिक आदरवाला हुआ (अगर बादल के बिना वर्षा संभवित नहीं है, बीज के बिना धान्य संभावित नहीं है तो धर्म के बिना जीव को सुख कैसे संभवित है ? )
जिस प्रकार स्वयं को श्रेय प्राप्त हुआ है उस प्रकार छोटे भाई सिंह के लिए भी श्रेय की कामना करनेवाले समुद्रपाल राजा ने उसे अपने पास बुला लाने के लिए अपने एक आदमी को तामलिप्ति नगर में भेजा । वह वहाँ जाकर वापस आया और बोला, "राजन् ! आपके बंधु सिंह के लिए तामलिप्ति नगर में मैंने बहुत पूछताछ की, किंतु उन्हें वहाँ हम ढूँढ नहीं पाये । वे वहाँ से किसी अन्य स्थान पर चले गये हैं - वहाँ से पलायन कर गये हैं ऐसा जानने को मिला है
।"
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