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जाकर रहने के लिए मैं समर्थ नहीं हूँ । अब मैं जहाँ से आया हूँ वहीं मेरे स्थान पर जाऊँगा, परंतु आप जब यात्रा करें तब महान शत्रुंजय तीर्थाधिराज की दो यात्रा का फल प्रति वर्ष मुझे दें ऐसा मैं आपके पास माँगता हूँ ।" राजा ने आनंदपूर्वक इस वचन का स्वीकार किया ।
सुकृत का पुण्य-प्रदाता
प्रश्न :- क्या इस प्रकार दूसरों को सुकृत का दान दिया जा सकता है ? इससे क्या लाभ ?
उत्तर :- इसका उत्तर यहाँ (श्लोक ९५ से १००) बहुत सुंदर दिया गया है । स्मरण रहे कि जैन शासन स्वीकार करता है. कि करण-करावण- अनुमोदन अर्थात् करना, कराना तथा अनुमोदना करना इन तीनों का फल समानरूप से मिलता है । जिस वस्तु का दान किया जाता है वह वस्तु दाता को हज़ार गुना प्राप्त होती है । सुकृत का दान किया जाय तो पुण्य की प्राप्ति होती है, पाप का दान किया जाय तो स्वयं को पाप की प्राप्ति होती है । ( श्लोक ९५ )
धनिक व्यक्ति अगर अपना धन अन्य को देता है तो उसका धन कम होता है परंतु अगर सुकृतरूपी धन अन्य को दिया जाय तो उस दाता का वह धन अधिक वृद्धि प्राप्त करता है । ( सुकृतदान धर्म का दान है । श्री जिनवचन उसकी बहुत प्रशंसा करता है । )
अन्य व्यक्ति को मृत्यु आदि के समय अथवा अन्य किसी प्रसंग पर जो सुकृत दान के रूप में (पुत्र आदि द्वारा ) सुनाया जाता है उस सुकृत का लाभ अर्थात् फल मरनेवाले -सुननेवाले व्यक्ति को अपनी श्रद्धा के अनुमान से उसी समय प्राप्त होता है । अब अगर यह सुकृत सुनानेवाला (पुत्र आदि) तदनुसार सुकृत कर देता है तो वह भी अपने ऋण - कर्ज़ में से मुक्त होता है और पुण्यवान बनता
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