Book Title: Nabhakraj Charitra
Author(s): Merutungacharya, Gunsundarvijay
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 40
________________ आदि चार कषाय स्वरूप है । जन्म-जरा-मृत्यु स्वरूप मुख्य क्लेश सहित अन्य हज़ारों क्लेश उत्पन्न होने के लिए यह भूमिरूप है । वह संसार स्वयं दुःखरूप है, दुःख के फलवाला है, दुःख की परंपरावाला है, उपाधिरूप है । यहाँ ऊपर से सुखी दिखनेवाला जीव भी वास्तव में दुःखी होता है । और इससे विपरीत शाश्वतअनंत-स्वाधीन-संपूर्ण आनंद के धामस्वरूप है मोक्ष । यहाँ आधिव्याधि-उपाधि का अंश भी नहीं होता । अनंत ज्ञान-दर्शनचारित्र-वीर्य की लीनता में अनंत अनंतकाल सुख ही सुख होता है । अरे ! सम्यक् समझवाले देव भी स्वर्गसुख का आदर नहीं करते हैं और मोक्ष के उत्तम सुखों की स्पृहा करते हैं । प्रश्न :- ऐसा चिरंतन सुख किसको मिल सकता है ? उत्तर :- ऐसा अनंत सुखमय मोक्ष सत्कार्य करनेवाले को प्राप्त होता है । उन सत्कार्यों में भी वीतराग-सर्वज्ञ-सर्वदर्शी जिनेश्वर देवों ने मुख्यतः सर्वजीव कृपा को ही प्रथम स्थान दिया है - बताया है । कृपा के विषय में मुनिवर ने हिंसा करने से आत्मा की चारों गतियों में होनेवाली दुर्दशा-सर्वनाश तथा अहिंसा से आत्मा को प्राप्त होनेवाली आबादी-शांति-समाधि-प्रसन्नता-आनंद की बातों का विस्तारपूर्वक उपदेश दिया । हिंसा के भयंकर करूण परिणाम सुनकर भानु अपने पापों से डर गया-कांप उठा । साधु महाराज को प्रणाम कर उसने यावज्जीव हिंसानिवृत्ति का उत्तम नियम माँगा, मुनि ने उसे नियम के विषय में समझुति दी और नियम प्रदान किया । तत्पश्चात् वह मुनि को अपने घर ले गया । शुद्ध अन्न से गुरु महाराज की भक्ति का लाभ लिया । इस प्रकार उसने भोग के फलवाला शुभ कर्म उपार्जित किया । हमेशा दयावान-कृपावान बनकर वह पूजनीय बना । लोगों के पास से मिलनेवाले धन से जीवनयापन करने लगा । मरकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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