Book Title: Nabhakraj Charitra
Author(s): Merutungacharya, Gunsundarvijay
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 39
________________ ३८ बना । एकदा राजा ने उसे अपने राज्य से निष्कासित किया । वहाँ से वह गंगा के आवर्त में पहुँचा । यहाँ उसे आजीविका के उचित साधन प्राप्त न हुए । बारबार आजीविका का लोप वह सहन न कर सका इस कारण से अब वह क्रूर कर्मों के द्वारा प्राप्त धन से अपना निर्वाह करने लगा । किसी एक समय शत्रुंजय तीर्थाधिराज की यात्रा करके अपने गाँव वापस जा रहा एक ब्राह्मण, अपनी पत्नी तथा पुत्र के साथ उस गाँव में आया । भक्त ने दान में दी हुई गाय के साथ अपने परिवार को लेकर दूसरे दिन बड़े सवेरे जब वह गाँव के बाहर जा रहा था तब उस दुष्ट भानु ने गाय - पत्नी - पुत्र सहित उस ब्राह्मण की हत्या कर डाली । वहाँ से भागता फिरता जब वह गंगावर्त्त में आया तब शाम के समय ठंडी की मोसम में काउस्सग्ग ध्यान में स्थित एक मुनि को उसने देखा । " अहो ! ये मुनि कितने समय तक कष्ट सहन करेंगे ?" ऐसा सोचता हुआ विस्मयवश वह चार प्रहर वहीं खड़ा रहा । प्रातः काल में जब मुनिवर ने काउस्सग्ग पूर्ण किया तो उन्हें प्रणाम करके भानु ने पूछा, "मुनिराज ! क्या विशाल राज्य प्राप्त करने की इच्छा से आप तपश्चर्या कर रहे हैं ? कष्ट सहन कर रहे हैं ? " " 'भाई ! हम तो जैन मुनि हैं । राज्य तो नरकगति में ले जाने का कारण है । हम उसकी स्पृहा क्यों करेंगे ? जिनवर के सभी साधुजन मुक्ति अर्थात् मोक्षप्राप्ति हेतु तप करते हैं ।" मुनिवर मृदु वाणी में बोले । "यह मोक्ष क्या है ?" भानु ने प्रश्न किया । तो मुनिराज ने संसार और मोक्ष का स्वरूप स्पष्ट किया । संसार, नरक - तिर्यंचमनुष्य-‍ - देव गति में आत्मा के भ्रमण अर्थात् संसरण स्वरूप है । वह पाँचों इन्द्रियों के विषय की लगन और क्रोध - मान-माया-लोभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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