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"शुद्ध दान तथा दया के शुभ भाव के कारण तुम्हें अति विस्तृत राज्य तथा उत्तम रूप की संपदा प्राप्त हुई थी परंतु देव के चंदन से पूर्व में तुमने जो विलेपन किया था उसके कारण तुम्हारे शरीर में कुष्ट रोग व्याप्त हुआ है ।"
अपने पूर्व जन्म के पापों के विषय में जानने पर राजा अत्यंत भयभीत हो गया । मुनि को वंदना करके अत्यंत विनयपूर्वक उसने प्रार्थना की, " हे दयासिंधु मुनिवर ! हे त्रिभुवनभानुप्रिय ! मुझे इस भयंकर पाप से मुक्त कराइये ! मुक्त कराइये !" शास्त्रों के ज्ञाता मुनिवर ने राजा को पंचपरमेष्ठी महामंत्र का जाप करने के लिए कहा । " राजन् ! जिनमंदिर का निर्माण करने से देवद्रव्य के भक्षण के पाप से मुक्ति प्राप्त हो सकती है"- ऐसा प्रायश्चित शास्त्र के ज्ञाता उन मुनिवर ने बताया ।
चंद्रादित्य राजा के मन में अब सन्मार्ग प्रदाता मुनिवर के प्रति बहुत आदर उत्पन्न हुआ । उसने उन्हें अति आग्रहपूर्वक अपने नगर में रखें । मुनिवर - गुरुवर के उपदेश अनुसार उसने नमस्कार महामंत्र का स्मरण शुरु कर दिया । धर्म का तत्काल फल देखिए ! छः मास में ही राजा की काया पूर्ववत् कंचनसम कांतियुक्त तथा निरोगी बन गई । गज, अश्व, धन आदि की वृद्धि से राज्य विस्तृत बना । चित्रकुट पर्वत के शिखर पर उसने त्रिभुवनभानु, परमतारक परमात्मा का, दैवी पर्वत के समान उच्च शिखरवाले मंदिर के निर्माण का कार्य जय-जय घोषपूर्वक आरंभ किया ।
एक दिन यह चंद्रादित्य राजा मुनिवर के पास बैठे थे । उस समय एक कुम्हार ने राजा को बताया, "राजन् ! एक आश्चर्य की बात है कि मेरा यह गधा पानी वहन करता हुआ अपनेआप ही पर्वत पर चढ़ जाता है । मुझे उसे किसी प्रकार की प्रेरणा करनी नहीं होती । इसका कारण क्या हो सकता है ?" यह सुनकर राजा
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