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परम दयावान मुनिवर मौन रहे तो उसने पुनः उनको वही प्रश्न पूछा, परंतु मुनि का मौन यथावत् था । तीसरी बार भी उसी प्रश्न के लिए जब उसे मुनिवर के पास से उत्तर न ही मिला तो उसका क्रोध आसमान पर पहुँच गया । हिरनों की हत्या का भाव अब मुनिवर की हत्या के भाव में परिवर्तित हो गया । परंतु वह भाव सफल कैसे हो सकता था ? ____ मुनि की हत्या के हेतु राजा ने धनुष्य पर बाण चढ़ाया, परंतु पुण्यमूर्ति साधु के आगे उसका कुछ न चला । वह स्वयं स्तंभित हो गया । अभय स्वरूप मुनिवर ने काउस्सग्ग पूर्ण करके मृदु स्वर से कहा, "राजन् ! पूर्व जन्म में किये हुए पापों का फल अभी भुगत ही रहे हो, अभी उससे मुक्त भी नहीं हुए हो और नये पापों को क्यों जन्म दे रहे हो ?" मुनि के वचन में जादु था । राजा के मन में मुनि को प्रणाम करने की भावना जागृत हुई । तो वह स्तंभन से मुक्त हुआ । मुनिवर को प्रणाम करके उसने पूछा, "महात्मन् ! पुराने और नये पापों की क्या बात है ? मुझे यह विस्तारपूर्वक बताने की कृपा करें !"
मुनिवर बोले, "सुनो राजन् ! अयोध्या नगरी में केवलज्ञानी मुनि भगवंत ने अति विशाल पर्षदा में देवद्रव्य के विनाश के अधिकार में तुम्हारे पूर्व भव की कथा मुझे बताई थी और मेरे द्वारा तुम्हें सन्मार्ग प्राप्त होगा ऐसा कहा था । और उसी कारण से मैं इस वन में तुम्हें प्रतिबोधित करने के लिए आया था तथा काउस्सग्ग ध्यान में रहा था ।"
"परम कृपावंत मुनिवर ! मुझे मेरे पूर्वभव का वृत्तांत बताने की कृपा करें ।" राजा चंद्रादित्य ने प्रार्थना की अतः मुनिवर ने पूर्वोक्त नाग कौटुंबिक की कथा आरंभ से उसे कह सुनाई ।
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