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नारकी की घोरातिघोर भयंकर वेदना भोगने के लिए । ऋषिहत्या का पाप चार बहुत बड़े लोकोत्तर पापों में से एक है । वह प्रायः तत्काल दुःखप्रदायक बनता है । वहाँ उसने तैंतीस सागरोपम तक अति तीव्र वेदना सहन की । वहाँ से बाहर निकलकर घोर संसार में परिभ्रमण करके वह बना हल चलानेवाला खेतमज़दूर । उसका नाम था कौशिक | अंबर ग्राम के ग्रामपति के घर रहकर वह सभी किसानों के साथ मज़दूरी करता था । एक दिन खानेपीने की वस्तुएँ लेकर वह मार्ग पर जा रहा था तब उसे मासोपवासी मुनि मिले । मुनि के दर्शन से वह प्रसन्न हुआ और मुनि को अपनी भोजन सामग्री ग्रहण करने के लिए विनंति की ।
प्रश्न :- वह तो मुनि की हत्या करनेवाला महापापी था तो फिर उसे मुनि की, भोजन सामग्री के द्वारा, भक्ति करने की इच्छा कैसे हुई ?
उत्तर :- अपने व्यंतर के भव में उसने समुद्रपाल राजा को सहायता की थी । बाद में धर्मीष्ठ राजा के पास उसने महातीर्थाधिराज श्री शत्रुंजय गिरिवर की प्रति वर्ष दो यात्राओं का फल माँगा था और राजा ने उसका स्वीकार किया था । अतः उस यात्रा का फल मिलने के कारण उसके पाप कुछ क्षीण हुए थे और उसी कारण से उसे मुनि को ऐसी विनंति करने का भाव हुआ था । अन्य व्यक्ति अगर सुकृत का दान करे तो वह फल दान पानेवाले को भी प्राप्त होता है । [ देखिए पृष्ठ नं. (२६)]
साधु महाराज निर्दोष गोचरी पाने के विषय में सावधान थे । उन्होंने उस हल चलानेवाले श्रमिक से कहा, "भाई, अगर मैं यह भोजन ग्रहण करता हूँ तो तुम जिनके लिए यह भोजन लेकर जा रहे हो उन लोगों को भोजन का अंतराय संभव होगा, इसलिए इस भोजन का स्वीकार करना मेरे लिए उचित नहीं है
।"
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