Book Title: Nabhakraj Charitra
Author(s): Merutungacharya, Gunsundarvijay
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 33
________________ ३२ देवद्रव्य का भक्षण करनेवाले नागकुटुंबी का सर्वनाश :भोग की आकांक्षावाला नाग कुटुंबी का जीव व्यंतर देव शत्रुंजय पर्वत पर साठ हज़ार वर्ष का आयुष्य पूर्ण कर वहाँ से च्यवित हुआ और कांतिपुरी नगरी में रुद्रदत्त कौटुंबिक के सोम नामक पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ । पाँचवे वर्ष में ही उसकी माता की मृत्यु हुई । सोम के घर के निकट ही नास्तिक नाम का एक देवपूजक रहता था । उसके पुत्रों के साथ सोम भी देवमंदिर जाता था, देवद्रव्य खाता था तथा पूजा करते हुए शेष रहे देव के द्रव्यस्वरूप चंदन से अपने शरीर पर विलेपन करता था और फिर गले तक अपने शरीर को वस्त्र से ढंककर घूमता रहता था । कालक्रम से वह युवा हुवा । एक दिन वह देव का धनभंडार चुराकर पलायन हो गया किंतु पाप के फल से कैसे पलायन हो सकता था ? वह पकड़ा गया चोरों के हाथों । चोरों ने उसे लूट लिया और उसे पारसीक देश में बेच दिया वे पारसीक लोग उसके शरीर में से रक्त निकालकर अपने वस्त्रों को रंगते थे । मौका पाकर वह वहाँ से पलायन हो गया । किसी जगह रास्ते पर चलता हुआ वह एक गाँव के निकट पहुँच गया । गाँव में प्रवेश करते समय ही सामने से आ रहे एक मास के उपवासी तपस्वी मुनिवर उसे मिले । महान शगुनवाले इन मुनिवर को पहचानने की क्षमता इस पापी के पास कहाँ थी ? उसने मुनिवर पर तीन बार लकड़ी से वार किया और भूमि पर गिरा दिया । मुनि देह त्याग करके स्वर्ग सिधारे । भाग रहे इस सोम को गाँव के रक्षकों ने पकड़ा । अभयदानदाताशिरोमणि, अनंत करुणानिधान, त्रिभुवनभानु, परमात्मा के उपासक श्रावकों ने दयावश उसे ग्रामरक्षकों से मुक्त करवाया । वह वहाँ से पलायन तो हो गया परंतु क्या पाप के फल से पलायन होना संभव है ? अरण्य में लगे दावानल ने उसे जलाकर भस्मीभूत कर दिया । मरकर वह पहुंच गया सातवीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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