Book Title: Nabhakraj Charitra
Author(s): Merutungacharya, Gunsundarvijay
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 32
________________ ३१ ब्राह्मण पुत्र ने उसके कान पर पत्थर मारा । लहुलुहान होकर वह पहुँचा न्यायालय में और वहीं बैठ गया । राजा ने उसके आने का कारण पूछा तो उसने हकीकत बताई और कहा, "मैं निर्दोष हूँ, मुझे क्यों आहत किया गया ?" राजा ने उसके घातक ब्राह्मणपुत्र को पकड़कर उस श्वान के सन्मुख खड़ा करके कहा, "यह है तेरा घातक, बता उसे क्या दंड दूँ ?" श्वान बोला, "राजन् ! उसे शिव के मठ में पूजारी के रूप में नौकरी दी जाय ।" राजा ने प्रश्न किया, "यह किस प्रकार का दंड है ?" राजा के इस प्रश्न के उत्तर में श्वान पुनः बोला, "हे राजन् ! सात भव पहले मैं शिव के मंदिर में शिवजी की पूजा किया करता था । भूल से भी देवद्रव्य का भोजन मेरे पेट में न जाय इस हेतु से हाथ धोकर ही मैं भोजन करता था । किसी एक समय लोगों ने शिवलिंग पर घी चढ़ाया था । घी गाढ़ा होने की वज़ह से उसे दूर करते समय वह गाढ़ा घी मेरे नाखूनों में पैठ गया । मैंने जब गरम भोजन खाया तब वह घी पीघला और अनजाने ही मेरे पेट में गया । इस दुष्कर्म के कारण ही मुझे सात बार श्वान का अवतार प्राप्त हुआ है । श्वान के रूप में यह मेरा सातवाँ अवतार है । मुझे जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ है तथा हे न्यायप्रिय राजन् ! आपके प्रभाव से मुझे मनुष्य की भाषा बोलने का सामर्थ्य भी प्राप्त हुआ है ।" यह सुनकर पापभीरु नाभाक राजा गुरु को प्रणाम करके बोले, " हे पूज्य ! देवद्रव्य के भक्षण से इतना भयंकर नुकसान होता है, इसे सुनकर मेरा हृदय बहुत कांप रहा है ।" आचार्य बोले, "हे राजन् ! देवद्रव्य का दुरुपयोग करनेवालों को उसके कैसे भयंकर परिणाम भोगने पड़ते हैं, यह बात तुम आगे सुनो जिससे तुम्हें अच्छी तरह से इसका ज्ञान हो सके ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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