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मिल गये हाथीदाँत के ढेर । अहा ! पाप द्रव्य का भी यह भयंकर सामर्थ्य है कि वह पापोन्मुख बुद्धि को ही जन्म देता है । (जीव अकेला ही कर्मबंधन करता है, उस कर्म का फल भी वह अकेला ही भोगता है, जन्म-मरण भी अकेले के ही होते हैं तथा भवांतर में भी जीव अकेला ही जाता है ऐसी सद्बुद्धि अब उसे कौन दे सकता है ?)
सिंह ने हाथीदाँत से चार जहाज भरे तथा अपने परिवार को वहीं बसाकर हाथीदाँत बेचने के हेतु सौराष्ट्र देश की और निकल पड़ा । समुद्र तो उसने निर्विघ्न पार कर लिया परंतु सौराष्ट्रा नदी के किनारे पर सघन स्थान में उसके सभी जहाज़ टूट कर चूर चूर हो गये । अति पापी व्यक्ति का कल्याण कैसे संभव है ? (अति उग्र पुण्य या पाप इस लोक में ही फल देते हैं) हाथीदाँत सारे गये पानी में और स्वयं गया परलोक में - प्रथम नारकी में नारक के रूप में । वहाँ भयंकर वेदना भोगकर वहाँ से बाहर निकलकर वह बना सरीसृप (सर्प) । मरकर गया दूसरी नारकी मैं। वहाँ दुःख भोगकर वह बना दुष्ट पक्षी । वहाँ से मृत्यु के बाद गया तीसरी नारकी में । वहाँ से निकलकर वन में दुष्ट सिंह बना
और हिंसामग्न वह गया चौथी नारकी में । वहाँ से निकलकर वह गया दृष्टिविष सर्प के अवतार में । अनेक पाप कर के वह पहुँच गया पाँचवी नारकी में । वहाँ से बाहर निकलकर वह उत्पन्न हुआ चांडाल की स्त्री के रूप में । वहाँ अनेक पाप करके वह पहुँच गया छठी नारकी में । वहाँ से बाहर निकलकर अनिष्ट ऐसे समुद्र में वह बना बड़ा मत्स्य । मृत्यु के बाद वह पहुँच गया सातवीं नारकी में । यहाँ से निकल कर वह बना तंदुलिया मत्स्य और दुःखों के सागर समान सातवीं नारकी में पुनः पहुँच गया । वहाँ से निकलकर पुनः चंडाल स्त्री बनकर फिर छठी नारकी में, इस
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