Book Title: Nabhakraj Charitra
Author(s): Merutungacharya, Gunsundarvijay
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 29
________________ २८ राजा अब न्यायपूर्वक राज्य का पालन करता है, प्रति वर्ष अनेकशः शत्रुजय आदि तीर्थों की यात्रा करते हैं और चिरकाल तक सुंदर सुखों का अनुभव करते हैं । ज्येष्ठ पुत्र को राज्य का कार्यभार सम्हालने के लिए सक्षम जानकर उसे राज्यसिंहासन पर बिठाया तथा विरागी चित्तवाले राजा ने लक्ष्मी का अति सुंदर सुकृतों में व्यय कर के आडंबर तथा विधिपूर्वक सद्गुरु के पास जैन साधुदीक्षा अंगीकार की । धर्मशील मनुष्य के मन में सदा यही रटन रहता है कि मानवजीवन का एक ही सार, बिना संयम नहीं उद्धार । राजर्षि समुद्रपाल ने कषाय के उपशमपूर्वक इक्कीस दिन तक अनशन किया, उसे सुंदर रीति से पूर्ण किया । यहाँ शरीर का त्याग कर के वे सर्वार्थ सिद्ध नामक विमान में अनुत्तरवासी देव बन गये । वहाँ से च्यवित होकर आर्यदेश, शुद्ध कुल आदि प्राप्त कर, सुंदर संयम साधना कर पहुँच गये मुक्तिसुख के साम्राज्य में । (हाँ ! मोक्ष कहें या महानंद, अमृत, सिद्धि, कैवल्य, अपुनर्भव, निर्वाण, मुक्ति, शिव, अपवर्ग या निश्रेयस् कहें - सब एक ही है ।) छोटे भाई सिंह का क्या हुआ ? इस ओर तामलिप्ति नगरी में सिंह ने सुना कि अपने बड़े भाई ने राजा के संमुख देवद्रव्य आदि सभी बातों का सत्य-प्रकाशन कर दिया है तथा राजा को यह सही लगा है इसलिये राजा ने उनका सन्मान कर के शत्रुजय तीर्थाधिराज की यात्रा के लिए उन्हें बिदा दी है । इजाजत दी है । तब सिंह स्वयं अपने पाप से शंकित हुआ और उसी वजह से सारा धन तथा अपने परिवार को लेकर अविलंब नाव में बैठकर पहुँच गया सिंहल द्वीप में । वहाँ के राजा की कृपा प्राप्त करके हाथीदाँत प्राप्त करने की इच्छा से वह स्वयँ पहुँच गया घोर अरण्य में । उसे वहाँ से तो और कुछ प्राप्त न हुआ परंतु हाथी का वध करनेवालों के द्वारा उसने हाथियों का वध करवाया । अब उसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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