________________
२१
मेरा यह सहोदर देवद्रव्य के भक्षण से भयंकर दुर्गति में जायेगा, इसलिए मुझे उसे सुंदर मधुर वाणी के द्वारा समझाना चाहिए । ऐसा सोचकर वह बोला, "भाई ! नरक में ले जानेवाले इस घोर पाप से तू डरता क्यों नहीं है ? जिनेश्वर देव की भक्ति के हेतु रखे गये द्रव्य का उपभोग तू क्यों करना चाहता है ?" देवद्रव्य से जिस सुख की इच्छा की जाती है, परस्त्री के साथ भोगोपभोग के सुख की जो अभिलाषा की जाती है उस उपभोग का सुख निश्चित रूप से अनंत अनंत दुःखों का कारण बनता है । [परिशिष्ट (३) देखें]
शास्त्रकार भगवंत बताते हैं कि : चैत्य के द्रव्य के विनाश से, मुनि की हत्या से, प्रवचन की हीलना से, संयति के ब्रह्मचर्यव्रत के खंडन से बोधिलाभ अर्थात् जैनधर्म की प्राप्तिस्वरूप वृक्ष के मूल को अग्नि से जला देने जैसा होता है, अर्थात् भविष्य में दूसरे भवों में जैनधर्म की प्राप्ति अत्यंत दुर्लभ बन जाती है । दैखिये जैन कविरत्न क्या गाते हैं ? "परदारा सेवी प्राणी नरक मां जाये, दुर्लभ बोधि होये प्राये रे,
देवरिया मुनिवर ध्यान मां रहेजो ।" "औरों की नौकरी करनी अच्छी है, दूसरों का दासत्व करना अच्छा है, अरे ! घर घर जाकर भिक्षा माँगना भी अच्छा है, परंतु दीर्घकालीन भयंकर दुःख देनेवाला देवद्रव्य का भक्षण तो कभी नहीं करना चाहिए ।" भाई समुद्र का ऐसा सुंदर उपदेश सुनकर भी छोटा भाई सिंह मौन ही रहा, वह वहाँ से उठकर चला गया ।
फिर से इस दुर्बुद्धि सिंहरूपी खिलौने को दुर्मति पत्नी ने एकांत में चाबी भरी, "आप तो ऐसे भोले के भोले ही रहे ! इस
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org