Book Title: Nabhakraj Charitra
Author(s): Merutungacharya, Gunsundarvijay
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 20
________________ १२ करने का निश्चय किया । शुभ कार्य में विलंब क्यों ? [देखिए परिशिष्ट (२)] राजा ने यात्रा के लिए शुभ मुहूर्त निकलवाया । प्रयाण के दिन ही राजा के सिर में भयंकर वेदना शुरु हुई । मुहूर्त चूक गया। इस कारण से राजा को अत्यंत पश्चात्ताप हुआ । राजा ने दूसरा मुहूर्त प्राप्त किया । उस दिन भी उसके ज्येष्ठ पुत्र को आकस्मिक व्यथा उत्पन्न हुई । यह मुहूर्त भी न साधा जा सका । इससे राजा को दुःख हुआ । उसने तीसरा मुहूर्त प्राप्त किया । उसी दिन राजा की पट्टरानी को महाकष्ट उत्पन्न हुआ । उसी प्रकार चौथा मुहूर्त भी सेना के उपद्रव की शंका के कारण छूट गया । 'मेरी आत्मा अति पापी है' इस प्रकार अपनी आत्मा की निंदा करते हुए राजा ने पाँचवा मुहूर्त निकलवाया किंतु वह भी चूक गया । शुभ काम में सौ विघ्न आते हैं यह बात राजा के लिए सत्य सिद्ध हुई । "बारबार ऐसा क्यों होता है ?" ऐसी चिंतायुक्त राजा इसका कारण जानना चाहता था । राजा के सदभाग्य से नगर के उद्यान में आचार्य श्री युगंधरसूरिजी महाराज पधारे । वनपाल ने राजा को शुभ समाचार दिये । राजा पहुँच गया उद्यान में । गुरु मनःपर्यव ज्ञान तक के चार ज्ञान के स्वामी हैं यह जानकर उसके आनंद में और भी वृद्धि हुई । उसने गुरु महाराज को भाव-भक्ति एवं श्रद्धा सहित नमस्कार किये और सारी बात बताई । स्वयं को शत्रुजय तीर्थाधिराज की यात्रा में विघ्नबाधा क्यों हो रही है उस विषय में पूछा । गुरु ने मनः पर्यवज्ञान का उपयोग रखा । फिर उन्होंने महाविदेह क्षेत्र में विचरण कर रहे अरिहंत देव को मानसिक नमस्कार किये और मन से ही प्रभु को इस विषय में प्रश्न किया । प्रभु के उत्तर को मन से ही अच्छी तरह से समझकर आचार्यश्री ने राजा को प्रश्न का उत्तर दिया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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