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देवद्रव्य रक्षण - भक्षण के विषय में समुद्र और सिंह नामक दो भाईयों की कथा :- अतीत चौबीसी में आज से करीब उन्नीस कोटाकोटी सागरोपम काल से पहले जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में संप्रतिस्वामी नामक अरिहंत के समय में समुद्रतट पर तामलिप्ति नामक नगरी थी । वहाँ दो सगे भाई रहते थे । बड़ा भाई समुद्र पापरहित - पुण्यवान और सरल स्वभाव का था । जब कि छोटा भाई सिंह उससे विपरीत स्वभाववाला अर्थात् पापी - पुण्यहीन और कपटी स्वभाव का था । समझें कि एक बेरी के जैसे मीठे फल देनेवाला था तथा दूसरा कांटे की तरह दुःखप्रद था ।
अपने घर के स्तंभ के लिए किसी समय वे ज़मीन खोद रहे थे उस समय उन्हें भूमि में से २४००० दिनार की निधि प्राप्त हुई । निधि के साथ एक धातु का पत्र भी प्राप्त हुआ जिस पर लिखा था "नाग नामक कौटुंबिक ने यह देवद्रव्य यहाँ गाड़ा है ।" ताम्रपत्र को पढ़कर न्यायप्रिय बड़े भाई समुद्र ने कहा, "शत्रुंजय तीर्थाधिराज पर जाकर हम नाग गोष्टिक के आत्मकल्याण के हेतु इसका उपयोग करेंगे ।" छोटे भाई ने तथा उसकी पत्नी ने यह बात सुनी । स्त्री ने अपने पति सिंह के कान भरे तो उसकी दशा
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उसने बड़े भाई से कह
वायु से प्रेरित अग्नि के समान हो गई दिया, "आपको ऐसे बड़े न्याय - नीति की पूंछ बनना किसने सिखाया ? आपको पता नहीं है क्या कि मेरी पुत्री विवाह के योग्य हो गई है ? धन के अभाव में उसका विवाह अब तक संभव नहीं हुआ है ! अब जब धन अपने आप हमें प्राप्त हुआ है तब ऐसे नखरे नहीं करने चाहिए, समझे ?" समुद्र सोचता है, "मेरा यह भाई स्वभाव से ही दुष्ट है, और फिर स्त्री की प्रेरणा हुई । किसी ने सच ही कहा है कि, अच्छे वंश में जन्मा हुआ मनुष्य भी स्त्री से प्रेरणा मिलने पर बुरे कार्य करता है । मथनी स्नेहयुक्त दहीं को मथ डालती है ।"
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