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अनेक संविग्न, गीतार्थ आचार्य भी "स्वप्नद्रव्य देवद्रव्य ही है" ऐसा स्पष्ट कहते हैं । इसलिए स्वप्नद्रव्य को देवद्रव्य ही मानना उचित है, तथा उसका उपयोग जिनालय से संबंधित सभी कार्यों में हो सकता है । परंतु जिनालय (मंदिर और मूर्ति) के अतिरिक्त अन्य किसी कार्य में नहीं हो सकता ।
प्रस्तुत पुस्तक 'नाभाकराज चरित्र' कहता है कि देवद्रव्य के विषय में शास्त्रोक्त उपयोग के अतिरिक्त अन्य किसी उपयोग के लिए सोचना अनुचित है, गलत है, पाप का कारण है । जैनतरों के महाभारत में व्यासऋषि भी कहते हैं :
"प्रभास्व न भुंजितम्" अर्थात् भगवान से संबंधित द्रव्य का भक्षण नहीं करना चाहिए ।
देवद्रव्य के उपयोग से संबंधित शास्त्रपाठ (१) सति हि देवद्रव्ये प्रत्यहं जिनायतने पूजासत्कार संभवः ।
__ (श्राद्धदिनकृत्य पृ. २७५) अर्थ :- देवद्रव्य होने पर प्रतिदिन जिनमंदिर में पूजा-सत्कार
(आंगी) आदि संभव होता है । (२) चैत्यद्रव्यस्य जिनभवन-बिम्बयात्रा-स्नात्रादि प्रवृत्ति हेतोः हिरण्यादेः वृद्धिं कर्तुं उचिता ।
(श्राद्धदिनकृत्य पृ. २६१ तथा उपदेशपद) अर्थ :- चैत्यद्रव्य (देवद्रव्य) जिनमंदिर, प्रतिमापूजा, जिनभक्ति महोत्सव, स्नात्रपूजा आदि का कारण है । अतः उन प्रवृत्तियों के
हेतु सुवर्ण-चांदी आदि की वृद्धि करनी चाहिए । (३) जेण चेइयदव्वं विणासि तेण जिणबिम्ब पूआईसण आणंदित
हिययाणं भवसिद्धियाणं सम्मदंसणं-सुअ-ओहि-मणपजवकेवलनाण-निव्वाण लाभा पडिसिद्धा । (वसुदेवहिंडी-प्रथम खंड) अर्थ :- जिसने देवद्रव्य का विनाश किया उसने जिन-प्रतिमा के
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