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*जन्म *
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वाला सर्पवाले को और चीत्तावाला छागवाले को ललकारता है; इस प्रकार नानाविध वाहनों पर सवार हुए कोटानुकोटी देव चले; उस वक्त विस्तीर्ण आकाश भी संकीर्ण नजर आने लगा- कितने ही देव अपने मित्रों को छोड़ छोड़कर आगे बढ़ने लगे, तब पीछे रहने वाले देव कहने लगे- अहो मित्रो! क्षणवार ठहरो, हम भी तुमारे साथ चलते हैं , आगे वाले बोलते हैं- मित्रो ! यह समय ठहरने का नहीं है, जो कोई पहिले जाकर भगवन्त के दर्शन कर वन्दन-नमस्कार करेगा वही भाग्यशाली समझा जायगा, ऐसा कहते हुवे आगे बढ़ते जाते हैं ; परन्तु मित्रों के लिये कतई नहीं ठहरते , जिसके बलवत्तर वाहन हैं वे आगे निकल जाते हैं और निर्बल देव हेरान होकर चिल्लाते हैंअहो ! क्या करें? आज तो आकाश-मार्ग भी छोटा होगया है ! तब दूसरे देव कहते हैं-बोलो मत 'संकीर्णा : पर्ववासराः' पर्व के दिन सकड़े होते हैं। इस तरह आते हुए इन्द्रदि नन्दीश्वर द्वीप में अपने विमानों को संक्षेप करते हैं तथा दक्षिण रतिकर पर्वत पर विश्राम लेते हैं ; एक सौधर्मेन्द्र विना ६३ इन्द्र और तमाम देव सीधे मेरुपर्वत पर चले जाते हैं.
सौधर्मेन्द्र भगवान के जन्मस्थान पर आकर उनको और उनकी माताजी को नमस्कार कर निवेदन करता हैShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com