Book Title: Mahavir Jivan Prabha
Author(s): Anandsagar
Publisher: Anandsagar Gyanbhandar

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Page 138
________________ * कैवल्य * [१२५ जन्म ने से 'गोशालक' नाम से प्रसिद्ध है, पहिले मेरा शिष्य हुवा था, किञ्चित् श्रुत ज्ञान होने से तीर्थकर बन बैठा है। प्रभु का खुलासा बिजली वेग की तरह शहर में फैल गया; यह जान गोशालक अत्यन्त क्रुद्ध हुवा, गौचरी के वास्ते भ्रमण करते 'आनन्द' नामक साधु को इस प्रकार कहा उन बेपरियों के माफिक (यहाँ एक कथा कही थी) तेरा धर्माचार्य अपनी ऋद्धि में सन्तुष्ट न रहकर जहाँ-तहाँ मेरे विरुद्ध बोलता है; अतः मैं अपने तप तेज से उसको भस्म कर दूँगा, तू शीघ्र जाकर उसे बोल देना. उनने तुरन्त ही प्रभु को खबर दी, शान्ति के लिए भगवान् ने सबको मौन रहने की सूचना दी: इतने में ही गोशालक आकर जगत्पूज्य के प्रति तुच्छता से बोला- अहो काश्यप ! तू क्या बोलता है ? क्या मंखलीपुत्र गोशालक मैं हूँ, अरे ! तेरा शिष्य गोशाला तो मर गया, मैं तो अन्य हूँ, परिसहादि सहन कर साधु-धर्म का पालन करता हूँ; इस कदर भगवन्त के लिये कृत-तिरस्कार को बरदास्त नहीं करते हुए सुनक्षत्र और सर्वानुभूति अनगार उसे मुंह तोड़ उत्तर देने लगे, इससे गोशालक ने तेजोलेश्या से उन्हे जला दिये. तब भगवन्त ने फरमाया- हे गोशालक ! तू वही गोशाला है, छिपाने से छिप नहीं सकता। इस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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