Book Title: Mahavir Jivan Prabha
Author(s): Anandsagar
Publisher: Anandsagar Gyanbhandar

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Page 108
________________ * दीक्षा * [ ९५ जांय और हमरा अभिग्रह फल जाय तो अच्छा है, अगर ऐसा हो तो यह विकृत - अभिग्रह है. सच्चे अभिग्रहवादी अभिग्रह फलने पर या वे फलने पर समभावी रहता है; बल्कि नहीं फलने पर विशेष प्रसन्न रहता है, वह सोचता है कि मुझे तपश्चर्या उदय आगई- भगवन्त को अभिग्रह तो बड़े विकट और विलक्षण थे, क्या ही अच्छा हो कि हम भी वे दिव्य दिन अपने जीवन में देखें- अहो त्यागी नाम धारण करने वालो ! आप भी इससे कुछ पाठ शीखेंगे ? कि खाने-पीने में ही अलमस्त बने रहेंगे ? नहीं नहीं ऐसा नहीं होगा ; आशा है आप जरूर विचारेंगे और आचरणा भी करेंगे. धर्मीजन का भी मन इधर आकृष्ट होगा ; ऐसा विश्वास है. ( रहन सहन ) भगवान् महावीर देव दीक्षा लेकर कैवल्य पर्यन्त बड़े उत्तम रहन सहन से रहे सिंह की तरह एकाकी देश - नगर - ग्राम - जंगल-पहाड़ादि क्षेत्रों में निर्भय विचरते रहे. नग्नावस्था में अलमस्त फकीर की तरह आप भ्रमण करते रहे, इष्ट और अनिष्ट संयोग के सुख - दुःख को समता तराजु से तौलते रहे, खान-पान की तो उनने जरा भी परवाह नहीं की, समय पर लूखा-सूखा जो भी मिल जाता उसमें संतुष्ठ रहते, चिन्ता डाकिन का उन पर लेस मात्र भी प्रभाव नहीं था, इससे वे आर्त्त- रौद्र ध्यान से विमुक्त थे, सदा धर्म ध्यान में विचरण करते थे . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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