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* कैवल्य *
[११३ को देखकर विचार करने लगा- “ सुवर्ण-रजत-रत्नों से निर्मित गढ में विराजमान, छत्रत्रय से शोभित, सिंहासनारूढ , देवेन्द्रों से स्तूयमान, देवाङ्गनाओं से गीयमान; ऐसा वादी आज तक कभी नहीं देखा ? क्या यह ब्रह्मा है- विष्णु है- या महादेव है ? क्या यह सूर्य है- चन्द्र है वा गणपति है ?" ऐसा सोचता हुवा अन्य देवों में संदेह करता हुवा, सल्लक्षण युक्त , विमल स्वभावी, वीतराग देव को देखकर उसका हृदय बोल उठा- यह तो कोई अद्भुत देव है-- सर्वज्ञ देव मालूम होता है, इसके साथ वाद करने को आना अच्छा नहीं हुवा, इतने दिनों का उपार्जित यशः सब स्वाहा होजायगा, मैं जानता हुवा भी आज अजान होगया हूँ, यहाँ तक पहुँच कर यदि वापस लौटं जाउँ तो लोगों में मेरी निन्दा होगी, हँसी होगी, आगे वाद-विवाद का मामला भी टेढा-मेढा है , अब क्या करना चाहिए 'इतो व्याघ्र इतस्तटिः' यानी इधर सिंह खड़ा है और इधर नदी बह रही है ; अर्थात् दोनों रास्ते बंद हैं" ऐसा संकल्प-विकल्प करता हुवा साहस पूर्वक सिढियों पर चढने लगा; उसही वक्त प्रभु ने फरमाया
अहो इन्द्रभूते ! कुशल है ? अपना नाम सुनकर तआजुब हुवा, मेरा नाम कैसे मालूम हुवा ? पर हाँ ! मेरा नाम तो जगत्प्रसिद्ध है, सब जानते हैं, कुछ होश में
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