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* दीक्षा
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रहा और मेथीपाक जीमता रहा, तंग होजाने पर भगवान् की शरण लेता, एक भी भला काम नहीं किया, न किसी को फायदा पहुचाया, साधुओं के गुणों में से शायद ही कोई गुण इसका सहचारी होगा- भगवन्त तो मौन व्रत में थे, बहुत कम बोले, सिद्धार्थ देव ही इसके साथ शिरपच्ची किया करता . इसने दाहक-शक्ति रूप तेजोलेश्या और अष्टाङ्ग निमित्त शीख कर तो मानो जमीन पर बैठकर आ. समान के तारे गिनने लगा था, इसका विशिष्ट वर्णन तो भगवती सूत्र के पन्द्रहवें शतक में पढिये, महावीर का शिष्य होकर इसने 'नियतिवाद' मत की अलग स्थापना कर ग्यारह लाख मनुष्यों को अपनी जाल में फँसाये और सर्वज्ञ-तीर्थकर-जिन भगवान् आदि उपाधियों का ढोंग रचकर जनता को मारी धोके में डाले और भगवान् महावीर के विरुद्ध प्रचार किया, पेटभर निन्दा की, कष्ट पहुँचाये; जिसका दिग् दर्शन आगे समय पर करावेंगेइतना होने पर भी भगवान ने तो उसे जलता और मरता बगया 'रक्षण करना पाप है' इस कूट सिद्धान्त को मानने वाले इससे बोध ग्रहण करें और वाडावन्दी के मोह को छोड़ कर आत्म कल्याण के लिए सत्य को स्वीकार करें- पाठकजन ! क्या आप भी गोशालक के विचारों से मुक्त होकर उसके बद कार्य को घृणा की दृष्टि से
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