________________
८६]
* महावीर जीवन प्रभा*
होगया कि ' होनहार हो वही होता है' यह गोशालक मत यहाँ कायम हुवा- एक वक्त कुर्मग्राम में वैश्यायन ऋषी नीचा मुख और उँचे पैर कर आतापना लेरहा था, मानों आग में झंपापात कर रहा हो, इस तरह धुम्रपान करता हुवा अपनी जटा में से जूएं चुन चुन कर पुनः जटा में डाल रहा था, यह देख हँसता हुवा कहने लगाअहा ! यह युकों की शय्या है- जूओं की जाल है ; तब उस तपस्वी ने क्रोधाक्रान्त होकर उस पर तेजो-लेश्या छोड़ी , स्वामी ने शीतलेश्या से उसकी रक्षा की.
गोशालक ने सिद्धार्थ को पूछा- यह तेजोलेश्या कैसे सिद्ध होती है ! उसने उपाय बताया उस माफक गोशालक ने छः मास पर्यन्त एक मुट्ठी उड़द के बाकुले और तीन चल्लु पानी निरन्तर पीकर सूर्य के सामने आतापना ली; इससे तेजोलेस्या ( जला देने की एक शक्ति) सिद्ध की. कुछ अष्टाङ्ग निमित्त भी शीख गया; अब तो मस्तिष्क फटने लगा, अहंकार में चकनाचूर होकर लोगों को कहने लगा- मैं जिन भगवान् हूँ, यहाँ से गोशाला अलग विचर ने लगा; भगवान् के छद्मस्थ काल में गोशाला यहाँ तक साथ रहा.
प्रकाश- गोशाला मात्र मिक्षा के दुःख से भगवान् का शिष्य बन गया था, स्थान-स्थान पर उपद्रव करता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com