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प्रस्तावना..
वाजे जैन गृहस्थ यती जनोंकों उपदेश देने लगते हैं, आपकों द्रव्यसै क्या करणा है, लेकिन जिनोंसैं शरीरकी ममता छूटे नहीं, उनोंकों तो द्रव्यकी अवश्य वांछा रहेगी, यदि इनोंसें त्यागी पना पूर्णतया निभसके तब तो जो जाणकार होता है वह यती तो अवश्य द्रव्यका त्यागी हो जाता है, कहनेकी, . आवश्यक्ता नहीं, लेकिन विचार करना चाहिये यदि यती गुरुजनोंकों श्रावक जननगद द्रव्य नहीं भेट करते तो, यतिगुरु कैसैं द्रव्य रखते, असाढमैं पछे बडी पर्यषणोंमैं व्याख्यान पूर्ण होनेपर, तपश्याके पारणे, औसरमैं, विवाहमैं, इत्यादि अनेक स्थानपर, द्रव्यदानके लिये पात्र सम्यक्त्वी व्रतधर मानकर भेट करना सुरुकरा, वह ही अया वधि प्रचलित है, इस आश्यासै यति, श्रावक जनोंके लिये धर्म उपदेश करने उपाश्रयमैं, तथा गृह ऊपर पर्यंत भी जाते हैं, यदि आश्यात्याग दै तो, निस्पृहस्य तृणं जगत् ऐसा स्वरूप वणजावै, लेकिन यह भी स्मरणमैं रहे, श्रावक जो जैन धर्म सनातनकों मंतव्य करनेवाले हैं उनोंके केई धर्म कार्य मंदिर उपाश्रयके, द्रव्यधारी यति गुरु विना, नहीं निकलेगें, जिन २ क्षेत्रों मैं, जैन गृहस्थोंकों, यति पंडितोंका सहवास रहा, वे तो जिन धर्म पर स्थित रहे, और जिनोंकों, यति पंडितोंका, सहवास, नहीं रहा, वे अमूल्य चिंतामणि रत्नसमान, जिन धर्मकों, अज्ञानपणे, त्याग कर, मिथ्यात्वियोंकी संगतसैं, मिथ्यात्ववासित हो गये, काशीस्थसन्यासी, महान्यायवेत्ता, रामा श्रमाचार्यजीनें, ब्राह्मन, सन्यासियोंकी, शभामैं, मुक्तकंठसैं, भाषण करा था, की, जैनधर्मका, स्याद्वादन्याय दुर्ग, ऐसा अभेद्य, और दृढ है, इसकों, कोई नही खंडन कर शक्ता, और जिन २ महाशयोंनें, इसके खंडनार्थ लेखनी उठाई, वे वालचेष्टावत्, विद्वानोंके सन्मुख, हास्यास्पद, माने गये हैं, इसके स्वरूपकों, प्रथम समझले, वह कदापि स्याद्वादीके सन्मुख, तर्क नहीं करेगा, अद्यावधि जितनें श्वेतांबर जिन धर्मी श्रावक है, उनोंका जिन धर्म, यतियोंकी संगतिसैं ही, रहा है, अब चाहै जिनके उपदेशका लाभ मंतव्य करें, अब तो यतिविद्वान ही समयके फेरसैं, अल्पही रह गये, ताहसलाभ सर्वत्र प्राप्तही कैसैं हो. . जिन मंदिरोंसैं जैनधर्मकी प्राचीनता अन्य दर्शनियोंकों भी विदित हुई, संवत् १९।७५ के वर्षके मासिक पत्र प्रयाग सरस्वतीने लिखा है मथुरामैं 'पृथ्वी तल खोदते एक जिन मंदिरका तोरण लेखयुक्त निकला है उस पर लिखा है शिवयशानें अर्हतकी पूजाके अर्थ ये जिन प्राशाद कराया, महावीरजीद्विवेदी सरस्वती संपादक लिखते हैं, नोट मैं, यह जिन मदिर, ईशवी सन्के, केइ शताब्दी प्रथमका बना हुआ, अंगरेजविद्वानों सिद्ध करा है, वह