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महाबंधे पदेसबंधाहियारे सव्वकम्माणि वि जीवस्स ण समत्था सुहं वा दुक्खं वा उप्पादेदं । एदेण कारणेण वेदणीए भागो बहुगो । एदेण कारणेण सव्वकम्माणं उवरिल्लं ।।
३. सत्तविधबंधगस्स वि णामा-गोदेसु भागो थोवो। णाणावरण-दसणावरणअंतराइगाणं भागो विसे० । मोहणीए भागो विसे० । वेदणीए भागो विसे० ।
४. छव्विहबंधगस्स वि णामा-गोदेसु भागोथोवो । णाणाव०-दंसणा०-अंतराइगाणं भागो विसे । वेदणीए भागो विसे० ।
जीवको सुख या दुःख उत्पन्न करनेमें समर्थ नहीं हैं। इस कारण वेदनीयको सबसे बहुत भाग मिलता है । तथा इसी कारण से सब कर्मो के ऊपर वेदनीयका भागाभाग प्राप्त होता है।
३. सात प्रकारके कर्मो का बन्ध करनेवाले जीवके भी नाम और गोत्र कर्मका भाग स्तोक है। इससे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मका भाग विशेष अधिक है। इससे मोहनीय कर्मका भाग विशेष अधिक है और इससे वेदनीय कर्मका भाग विशेष अधिक है।
४. छह प्रकारके कर्मो का बन्ध करनेवाले जीवके भी नाम और गोत्रकर्मका भाग स्तोक है। इससे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मका भाग विशेष अधिक है और इससे वेदनीय कर्मका भाग विशेष अधिक है।
विशेषार्थ-गुणस्थान भेदसे बन्ध चार प्रकारका होता है-आठ प्रकृतिक बन्ध, सात प्रकृतिक बन्ध, छह प्रकृतिक बन्ध और एकप्रकृतिक बन्ध । एकप्रकृतिक बन्ध उपशान्तमोह आदि तीन गुणस्थानोंमें होता है । किन्तु जब एकप्रकृतिक बन्ध होता है,तव बटवारेका प्रश्न ही नहीं उठता, इसलिए मूलमें इसका उल्लेख नहीं किया है। छह प्रकृतिक बन्ध सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें होता है । तथा सात प्रकृतिक बन्ध प्रथमादि नौ गुणस्थानोंमें और आठ प्रकृतिक बन्ध प्रथमादि सात गुणस्थानोंमें आयुबन्धके काल में होता है। इसलिए पिछले इन तीन प्रकार के बन्धोंमेंसे अपने-अपने योग्य स्थानोंमें जब जो बन्ध होता है तब बन्धको प्राप्त होनेवाले कर्म प्रदेशोंका विभाग किस क्रमसे होता है,यह कारणपूर्वक यहाँ बतलाया गया है। आठ कर्मो का जितना स्थितिबन्ध होता है उनमें आयुकर्मका स्थितिबन्ध सबसे स्तोक है, क्योंकि इसका जघन्य स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थितिबन्ध तेतीस सागर है । इसलिए इसमें निषेकरचना सबसे अल्प है। यही कारण है कि इसे बन्धके समय सबसे अल्प भाग मिलता है। नाम और गोत्रकर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध बीस कोडाकोड़ी सागर है, इसलिए इन दोनों कर्मो को समान भाग मिलकर भी आयुकर्मके भागसे बहुत मिलता है । ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय का स्थितिबन्ध तीस कोड़ाकोड़ी सागर है, इसलिए इन तीन कर्मों को परस्पर समान भाग मिलकर भी नाम और गोत्रकर्मके भागसे बहुत मिलता है । यद्यपि वेदनीय कर्मका स्थितिबन्ध भी तीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है, तथापि सुख-दुःखके निमित्तसे इसको निर्जरा सर्वाधिक होती है। अतः इसे मोहनीय कर्मसे भी अधिक द्रव्य मिलता है। मोहनीय कर्मका उत्कण स्थितिबन्ध सत्तर कोडाकोड़ी सागर है, अतः इसे ज्ञानावरणादिके द्रव्यसे बहत दव्य मिलता है। तात्पर्य यह है कि वेदनीय कर्मके सिवा जिस कर्मके अपने-अपने स्थितिबन्धके अनुसार जितने निषेक होते हैं,उसी हिसाबसे उस कर्मको द्रव्य मिलता है। मात्र यह विवक्षा वेदनीय कर्मपर लागू नहीं होती, इसका कारण पहले दे ही आये हैं।
१. ता० प्रतौ उप्पादेदु० ते इति पाठः । २. ता०प्रतौ अवरिट इति पाठः ।
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