Book Title: Kya yah Satya hai
Author(s): Hajarimal Bhoormal Jain
Publisher: Shuddh Sanatan Jain Dharm Sabarmati

View full book text
Previous | Next

Page 15
________________ (चउवीसंपि जिणवरा तित्थयरा में पसियंतू) क्या तीर्थंकर प्रभू वीतराग नहीं है? क्या वे कभी अप्रसन्न या प्रसन्न होते है ? अगर ऐसा होता है तीर्थंकर प्रभु जो वीतराग है और सामान्य देवता जो रागी है उनमें क्या फर्क ? यह कितनी घोर आशाधना का कारण है। और इसके आगे तो स्पष्ट मांग (मांगणी, Demand) करते है कि हमें सिद्धि पद दे दो (सिद्धा सिद्धी मम दिसंतु) क्या सिद्धि पद युंही मुफ्त में ही मिल सकता है? या मांगने से तीर्थंकर प्रभू दे देते है ? दर्शनाचार के अंतर्गत दूसरा आचार "निक्कंखिअ" का है इसमें आठ आचार है और जैन दर्शन से ही संबंधित है अन्य से नहीं। यह दूसरा आचार सूचित करता है कि आकांक्षा रहित आचरण याने प्रतिफल की इच्छा रहित का आचार है । आचार नहीं पालने से अतिचार लगता है। दूसरे आवश्यक का मुख्य सूत्र “नमोत्थुणं" जिसे शक्र स्तव भी कहते है, जिसका कल्पसूत्र आदि आगम सूत्रों में वर्णन है उसमें कहीं भी प्रसन्न होने, अप्रसन्न होने एवम् कहीं भी कोई मांगने का उल्लेख नहीं है न कहीं संयुक्त नाम है न संयुक्त वंदन है। इन सभी प्रमाण एवं उल्लेखों को भूलाकर उपेक्षा कर हम जो क्रिया करते है तो हमे शास्त्राज्ञा उल्लंघन का दोष लगेगा । वास्तव में देखा जाय तो लोगस्स का उपयोग काउस्सग करने के पश्चात् ही विशेष रूप से किया जाता है। काउस्सग्ग के नियम "जाव अरहंताणं भगवंताणं नमुक्कारेमि न पारेमि” के अनुसार "नमो अरहंताणं" कहकर ही पूरा करते है । अत: यह नियम पूरा हो जाता है । इसके आगे लोगस्स सूत्र की जरुरत रहती ही नहीं, फिर भी हमें बोलना ही है तो बाधा रहित की रचना कर बोलना चाहिये । जैसे :- नमो उसम जिण चंद नमो अजिअ जिण-चंद- नमो संभव जिण चंद....... जहां तक मेरा विश्वास है कि ऐसी रचनायें चैत्यवासियों के युग में हुई होगी। 14) क्या यह सत्य है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74