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यही भ्रम है जिसका वास्तविक अर्थ यह होना चाहिये कि जैन दर्शन की कोई भी क्रिया चाहे वह सामयिक हो तीर्थंकर प्रभू का कीर्तन हो भक्ति हो, गुरूवंदन हो, तप, त्याग कोई भी हो उसके प्रतिफल की इच्छा नहीं करनी चाहिए विशेषकर पौवालिक सुख की इच्छा ( आकांक्षा) बिल्कुल नहीं करनी चाहिये ।
जैन दर्शन में विषक्रिया गरलक्रिया का वर्णन आता है
विषक्रिया :- अर्थात कोई भी धार्मिक क्रिया अनुष्ठान इसभवन के पौगलिक सुख की इच्छा से करना विषक्रिया कही जाती है विष मारने का काम करता है अतः निषेध है ।
गरलक्रिया :- भवांतर में देवलोक आदि के सुख की इच्छा से धार्मिक क्रिया करना गरलक्रिया कही जाती है यह भी त्याज्य है । अतः निकंखिअ याने ऐसी आकांक्षा ( इच्छाओं) से रहित होकर जैन दर्शन की धार्मिक क्रिया करने का है। अन्य दर्शन से कोई संबंध नहीं ।
किन्तु विषम काल की विडंबनाओं से आज कई क्रिया अनुष्ठान इन्हीं उद्देश्यों से किये जाते है।
अतः वास्तविक अर्थ गौण हो गया है और एक काल्पनिक अर्थ करके इतिश्री की जाती है जो अत्यंत विचारणीय है।
वैदिक दर्शन के धार्मिक ग्रंथ गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है कि कार्य करते रहना धर्म है किन्तु फल की इच्छा नहीं करना चाहिए ।
तो जैन दर्शन तो लोकोत्तर दर्शन है इसमें प्रतिफल की इच्छा करना सर्वथा अनुचित है।
जब प्रतिफल की इच्छा (आकांक्षा) ही नहीं करना है तो प्रतिफल की शंका का प्रश्न ही नहीं रहता ।
अतः विति गच्छा का दूसरा अर्थ (धर्म के प्रतिफल में शंका नहीं करना) अप्रासंगिक हो जाता है ।
72) क्या यह सत्य है ?
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