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क्या यह सत्य है ?
(जैन दर्शन से संबन्धित विचारणीय विषय)
परस्परोपबही जीवानाम
हजारीमल
S
tation International
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क्या यह सत्य है ?)
क्या यह
आद्य प्रेरक : स्व. मुनि श्री हंसविजयजी महाराज
लेखक एवं संग्राहक: भण्डारी हजारीमल भूरमल जैन करनुल - 518001 (आ. प्र.)
प्रोत्साहक: शुद्ध सनातन जैन संघ साबरमती, अहमदाबाद (गुजरात)
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क्या यह सत्य है ?
प्रथामवृति: 1000 प्रति (सन् 1994)
मूल्य : एक रूपया मात्र
प्राप्ति स्थान : पारस उद्योग
F-117, RIICO, New Industrial Area CHITTORGARH - 312001 (Raj.)
छगनलाल बी. राठौड़ महावीर कपड़ा मार्केट, रेलवेपुरा अहमदाबाद (गुजरात)
शा. रतनचन्द अब्बाजी क्लोथ मर्चेन्ट, जैन टेम्पल स्ट्रीट चौक बाजार, करनुल - 51800 (आ. प्र.)
रूपम स्टूडियो कींग स्क्रल, माटुंगा, बम्बई-400019 फोन : 4376088
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अनुक्रमणिका
1. पंचरमेष्टिसूत्र
2. अरहंत शब्द का प्रमाण
3. नमोत्थुण
4. लोगस्म सूत्र 5. जयवीराय
6. तीन थुई चार थुई
7. मंत्र ज्योतिष
8. सिद्ध चक्र
9. नव स्मरण
10. देव द्रव्य
11. अंजन शलाका
12. जिन मंदिर निर्माण में जैन सिद्धांत
13. सम्यक्त्व
14. पुण्य पाप की चतुर्भगी
15. केवली आहार 16. स्त्री मोक्ष
17. आत्मा का अनादिपन
18. आत्मा का विकास
19. पुण्य से मोक्ष
20.35
21. नमो लोए सव्व साहुणं 22. दर्शनाचार
5
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"प्रस्तावना
चरम तीर्थपति भगवान महावीर स्वामी के निर्वाण बाद एवम् विशेषकर आचार्य श्री देवद्धि गणी द्वारा आगम सूत्र लिपीबद्ध किये जाने के बाद कई परिवर्तन अनावश्यक हो गये है जिसमें कई जैन दर्शन के मौलिक सिद्धांत से विपरीत भी है एवम् तदनुसार नवीन सूत्रों की रचना मूलसूत्रों में परिवर्तन प्रक्षिप्तिकरण आदि है।
इन परिवर्तित सूत्रों, गाथाओं को जैन सिद्धांत का आधार मानना मुख्य हो गया है और मौलिक आधार गौण हो गया है। जैसे :- उदाहरणार्थ - मूल आगम सूत्रों में मंत्र का स्पष्ट निषेध होने पर भी आज मंत्र आराधना आम बात हो गई है यहां तक कि पवित्र अध्यात्मिक पंच परमेष्टि सूत्र को भी मंत्र के विशेषण से संबोधित किया जाता है। लघु शांति, बृहद शांति आदि ऐसी ही रचनाएं है।
आज इस लघु पुस्तिका में परिवर्तित सूत्रों के भूलों का अनावश्यक विपरित गाथाओं का क्रिया सूत्रों का एवम् मान्यता भेद का जो आज तक हमारे ध्यान में आया है संचय किया गया है।
पाठकगण से निवेदन है कि बिना किसी पूर्वाग्रह के शांत चित्त से इसे अद्योपयंत पढ़े इसमें दिये गये प्रमाणों, उदाहरणों को ध्यान से देखे, पढ़े, चिंतन करे प्रमाणों का परिक्षण करें और वास्तविकता समझने का प्रयास करें यही एक हार्दिक इच्छा।
हमारा लक्ष्य उद्देश्य एक मात्र यही है कि जैन दर्शन की वास्तविकता असलियता को समझे और आराधना के बहाने जो विराधना होती है उससे बचने का प्रयास करें, करावें ।
यथा शक्य जैन दर्शन के मूल भूत सिद्धांत को उजागर करने का ही प्रयास किया गया है तथापि अज्ञानतावश कोई विपरितता आ गई हो तो एवम् किसी को अविनय जैसा लगे तो मिच्छा मि दुक्कडं "
- हजारीमल जैन
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पंच परमेष्टि सूत्र ( नवकार)
जैन दर्शन के सभी समुदायों का पंच परमेष्टि सूत्र ( नवकार) पर अटल श्रद्धा है, भक्ति है जिसका होना भी जरुरी है । इसके प्रथम पद का उच्चारण सर्वत्र व्यापक रूप से " नमो अरिहंताणं" इस तरह से किया जाता है । इसके प्रथम पद का लगभग नवीन छपी हुई सभी पुस्तकों में यहां तक कि आगम सूत्रों की नवीन छपाई में भी इस तरह का उल्लेख है अर्थात् “नमो अरिहंताणं" है जिसका अर्थ होता है- अरि= नाम दुश्मन, शत्रु । हंताणं = का अर्थ है मारना (नाश करना) इस तरह से शुत्र को मारने वाले को नमस्कार हो, ऐसा समझ कर नमस्कार किया जाता है । यहां विवेचन में शत्रु अर्थात् राग-द्वेष कषाय- ऐसा स्पष्टीकरण करके समझाया जाता है लेकिन इसके गहराई में जाने से यह वाक्य जैन दर्शन के मौलिक सिद्धांत से विपरित मालूम होता है एवं आगम सूत्रों से भी विपरित है जिसका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार से है
'—
-
शत्रु अर्थात् दुश्मन शब्द द्वेष का द्योतक है और मारना नाश करना हिंसा जन्य है । राग ही द्वेष का कारण है और द्वेष ही मारने का प्रेरक है ऐसे राग द्वेष द्योतक शब्द "शत्रू' व मारना, नाश करना आदि हिंसा जन्य कषाय स्वरूप शब्दों के विशेषणों से वीतराग शासन के महान विभूतिओं को संबोधित करना, विशेषण लगाना कैसे उचित हो सकता है । वास्तव में आत्मा का कोई शत्रु नहीं। राग द्वेष आत्मा द्वारा स्वयं के उपार्जित दोष है दुर्गुण है । अतः इनको छोड़ना भी अपने स्वयं का काम है यदि इनको छोड़ते जाये और नवीन उपार्जित नहीं करे तो एक दिन ऐसा आ सकता है कि इनसे छुटकारा मिल जाये ।
ज्ञानी किसी को मारते नहीं, नाश करते नहीं, जैसे कंचन कामिनि राग द्वेष के कारण है तो उसे छोड़ देते है । मारते नहीं नाश करते नहीं । शब्दार्थ भी उपयोगी होना चाहिये ।
मूलभूत आगम सूत्रों में यह वाक्य ही अलग तरह से है वह है " नमो अरहंताणं" जिसका अर्थ :- अरहं योग्यता प्राप्त पूजनीय आदि ताणं = अर्थात् शरण भूत आश्रय दाता ऐसे योग्यता प्राप्त पूजनीय महान विभुतियों को नमस्कार !
क्या यह सत्य है ? (5
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यहां न शत्रु का उल्लेख है न मारने की या नाश करने की बात है कदाचित यह प्रश्न हो कि किन आगम सूत्रों में इसका किस तरह से उल्लेख है :उत्तर = भगवती सूत्र के मंगलाचरण में कल्पसूत्र के शक्र स्तंव में एवम् ज्ञाता धर्म कथांग सूत्र, आचारांग सूत्र, ठाणांग सूत्र आदि कई सूत्रों में कई जगह पर "अरहंताणं" ही है एवम् आगम सूत्रों के लिपीबद्ध होने के पहले याने करीबन दो हजार वर्ष पहले के राजा खाखेल के शिलालेख में मथुरा के कंकाली टीले से निकले शिलालेख में भी "अरहंताणं" है । प्राचीन ग्रन्थों में प्रायः अरहंताणं शब्द का ही उल्लेख है।
किसी प्रभावक विशिष्ट पदवीधारी व्यक्ति द्वारा अनजाने में गलती हो गई है अतः इसी से उन्हीं का अनुकरण व्यापक हो गया है और रूढ बन गया है जो जैन के मौलिक सिद्धांत से आगम सूत्रों से सर्वथा विपरित है।
ज्ञानाचार के अंतर्गत वंजन अत्थ तदुभये का उल्लंघन भी है।
आज से लगभग चालीस वर्ष पूर्व आचार्य श्री लब्धि सूरीस्वरजी द्वारा रचित स्तवन "कत्तल कर्मो नी" करी करी ने का विरोध हुआ था क्योंकि यह शब्द साधारण भाषा का था । लेकिन आचार्य श्री द्वारा "नमो अरिहंताणं" का उदाहरण देने से विरोध करने वालों को शांत होना पड़ा था। गहराई में जाने का प्रयत्न नहीं किया गया । अतः “अरहंताणं" शब्द का उपयोग ही आगमिक है वास्तविक है।
6) क्या यह सत्य है ?
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अरहंत शब्द के प्रमाण
1) भगवती सूत्र के मंगलाचरण में ही "नमो अरहंताणं" है।
2) आचारांग सूत्र के प्रथम स्कंध चौथा अध्याय में अरहंता भगवंतो ते सव्वे एवं माइक्खंति
3) समवायांग सूत्र के समवाय चौतीस (34) जल्य जत्थ वियणं "अरहंता" भगवंतो चिट्ठ तिवा निसयंतिवा
4) ठाणांग सूत्र चतुर्थ उद्देशक चउहिं ठाणेहिं जीवा देव किब्बि सियताणं पगरेति तं जहा :"अरहंताणं" अव्वण वदमाणे "अरहंत" पणत्तस्स अव्वणं वदमाणे
5) ज्ञाता धर्म कथांग सूत्र प्रथम अध्ययन "अरहंत" मायरोवा चक्क वट्टी मायरोवा "अरहंत" सिवा चक्कवटी वा
6) निरयावलीका वर्ग पांच अध्ययन प्रथम तएणं "अरहा“ अरिट्ठ नेमि "अरहा“ अरिट्ठ नेमिं विहरइ . 7) उत्तराध्ययन सूत्र अध्याय छ: गाथा अठारह • "अरहा" णाथ पुत्ते भगवं वेसालिए
8) सूत्र कृतांग सूत्र द्वितीय सूत्र स्कंध द्वितीय अध्ययन जेय अतीता जेय पदुपन्ना जेय आगमिस्सा "अरहंता" भगवंता सव्वे ते
9) महानिशिथ सूत्र के उपधान विधि में (अध्याय पांच) नमो "अरहंताणं" ति पढम ज्झयणं अहिज्जेय वं तद्दिहेय आय बिलणं ___10) उडीसा के हाथी गुफा के शिलालेख में जो 2000 वर्ष पहले का है महा मेघवान राजा खाखेल का उसमें इस प्रकार है :नमो "अरहंताणं" नमो सव्वसिधानं वेरेन महाराजेन "अरहंता“ पसादानं
11) मथुरा के कंकाली टीले से निकले शिलालेखों में से एक शिलालेख जो कि इसवी सन् पचास पूर्व का कहा जाता है। नमो “अरहंतो" वधमानस "अरहत” पूजाये ___12) हैदराबाद के प्रसिद्ध सलारजंग म्युजियम में धर्मशास्त्रों का संग्रह
क्या यह सत्य है ? (7
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"
है उसमें जैन धर्म संबंधित कुछ हस्तलिखित प्रतियां (पन्ने) भी है कल्प सूत्र के पन्नों में नमोत्थुणं "अरहंताणं" है ।
NOTE : उपरोक्त प्रमाण जो आगम सूत्रों के दिये गये है उनमें से कई सूत्रों में एक से ज्यादा पांच, दस, पच्चीस बार भी "अरहंताणं" शब्द का उपयोग हुआ है यहां सिर्फ एक एक ही बार बतौर नमूने के बताया है यह बात अवश्य है कि 'अरिहंत' शब्द व्यापक एवं रुढ हो गया है हो जाने से कहीं कहीं आगम सूत्रों की नवीन छपाई एवं प्रकीर्ण आदि विभिन्न सूत्रों में अरिहंत शब्द ही ज्यादा मिलेगा ।
"नमोत्थुणं"
नमुत्थुणं सूत्र यह सूत्र आगम सूत्रों में "नमो जिणणं जिअ भयाणं" यहां तक ही है "जे अइया सिद्धा जे अभवि संतिण गये काले" आदि बाद में प्रक्षिप्त है । इसके लिये वर्तमान आचार्य आदि विद्वान जो इस प्रक्षिप्त गाथा को सही मानते है । द्रव्य निक्षेपा का आधार लेकर समाधान करते है अतः द्रव्य निक्षेपा का सही विवरण निम्न प्रकार से दिया गया है जिससे वास्तविकता समझ में आ जाय ।
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8 ) क्या यह सत्य है ?
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"निक्षेपा"
निक्षेपा संबंधी आज हमारी मान्यता इस प्रकार है : चैत्यवंदन भाष्य की गाथा 51 नाम जिणा जिण नामा, ठवण जिणा जिणंदपडिमाओ, दव्व जिणा जिण जीवा भाव जिण समवसरणन्था नाम निक्षेपा :- जिनेश्वर भगवान के नाम को निक्षेपा कहा गया है। स्थापना निक्षेपा :- जिनेश्वर भगवान की प्रतिमा चित्र आदि ।
द्रव्य निक्षेपा :- जिनेश्वर भगवंत के जीव को अथवा आत्मा को द्रव्य निक्षेपा
भाव निक्षेपा :- समवसरण में विराजमान जिनेश्वर भगवंत को भाव निक्षेपा कहा गया है।
उपरोक्त गाथा में सिर्फ जिनेश्वर भगवंत के ही निक्षेप करके बताये गये है और साथ में एक ऐसी मान्यता भी रूढ कर दी गई है कि जिसका भाव निक्षेपा वंदनीय है उसके चारों निपेक्षा वंदनीय है अतः इसी मान्यतानुसार आवश्यक सूत्रों में ऐसी गाथायें जोड़ दी है और प्रकरण आदि सूत्रों में ऐसी ही रचनायें कर दी गई है जिसी का नमूना उपरोक्त गाथा है लेकिन आगम सूत्रों से व तात्त्विक दृष्टि से सर्वथा विपरित है :
___ आगम सूत्रों के अनुयोग द्वार सूत्र में निक्षेपा संबंधी जो व्याख्या की गई है उसका उद्देश्य उसकी व्याख्या ही अलग है अनुयोग द्वार सूत्र में निक्षेपाओं का जो वर्णन है वह आवश्यक क्रिया सूत्र आदि से संबंधित है वहां कहीं भी इस तरह से जिनेश्वर भगवंत की ऐसी कोई व्याख्या नहीं है। __ वहां नाम व स्थापना की व्याख्या उपरोक्त गाथा के अनुसार आवश्यक क्रिया सूत्र से की है और आवश्यक क्रिया करते समय मन स्थिर न हो उपयोग रहित हो उस क्रिया को "द्रव्य क्रिया" अर्थात् द्रव्य निक्षेपा कहा गया है एवं उपयोग सहित की क्रिया को भाव क्रिया अर्थात् "भाव निक्षेपा" कहा गया है।
उक्त आगम सूत्र में ही क्रिया सूत्र के निक्षेपाओं की जो व्याख्या की
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गई है उसमें द्रव्य निक्षेपा की आवश्यक क्रिया जैसी व्याख्या करते हुए और एक उदाहरण दिया गया है कि :
घी का घड़ा या मधु का घड़ा अर्थात् जिस घड़े में घी या मधु भरा जाने वाला है या भरा गया था ( किन्तु अब खाली है) इस तरह के घडे जो कि वर्तमान में खाली है उसे घी का घड़ा जो कहते है वह द्रव्य निक्षेपा से घी का घड़ा है ऐसा कहा जाता है। उपरोक्त दोनों उदाहरणों में से प्रथम उदाहरण का उद्देश्य आवश्यक क्रिया को उपयोग सहित और उपयोग रहित करने के भेद को समझने का है ।
-:
दूसरा उदाहरण घी का घड़ा जो कहा जाता है जिसे द्रव्य निक्षेपा कहा गया है वह व्यवहारिकता को समझने के लिये है इस व्यवहारिकता को ही अगर हम यह समझ ले जैसा कि हमने चारों निक्षेपाओं का वंदनीय या निंदनीय समझ रखा है। तो अनुचित होता है जैसे कि :घी से भरे हुए घड़े का मूल्य रु. 500/- आता है तो घी का घड़ा भरा होने पर ही पांच सौ रुपये का मूल्य आयगा यदि वह घडा खाली है और घी से भरा जाने वाला है या भरा हुआ था। इससे घी के घडे का मूल्य पांच सौ रुपया नहीं आयगा अपितु खाली घड़े का मूल्य जो भी पांच या दस रुपये होगा वहीं आयेगा घी का घड़ा कहने मात्र से मूल्य नहीं आता । यह एक व्यवहारिक साधारण समझ की बात है फिर भी इन उदाहरणों के रहस्य को नहीं समझने के कारण द्रव्य निक्षेपा को जिनेश्वर भगवान के साथ लगाकर और जिसका भावनिक्षेपा वंदनीय है उसके चारों निक्षेपा वंदनीय है ऐसा मानकर भविष्य में होने वाले जिनेश्वर वंदनीय समझकर ऐसी गाथाये आवश्यक सूत्रों में याने नमोत्थुणं आदि में जोड़ दी है। वं चैत्यवंदन भाष्य आदि प्रकरण सूत्रों में ऐसी रचना कर दी है जो मूलभूत आगम सूत्रों के संबंध से रहित तो है ही व्यवहारिकता से भी विपरित है जिसके और भी प्रमाण उदाहरण निम्न दर्शाये गये है ।
1) कल्प सूत्र में शक्रस्तव अर्थात् नमुत्थुणं जो है उसमें "जे अइया सिद्धा" जेअ भविसंतिणगये काले" यह वाक्य ये शब्द ही नहीं है आचार्य देवर्द्धि गणी द्वारा आगम सूत्र लिपिबद्ध होने तक यह व्याख्या ऐसी रचना कृति नहीं थी इसका यह ठोस प्रमाण है । बाद में किसी आचार्य द्वारा ऐसी रचनाकर नमुत्थुणं जैसे सूत्रों में जोड़ दी है।
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2) समवायांग सूत्र के शुरूआत में ही नमुत्थुणं जैसा स्तवन सूत्र है उसमें भी "जे अइया सिद्धा" जे अ भवि संतिण गये काले" ये वाक्य नहीं है।
___3) सूत्रकृतांग सूत्र के अंदर एक प्रसंग का उल्लेख है जिसमें आर्य उदयक भगवान महावीर के शिष्य गौतम स्वामी से कहते है कि तुम्हारे धर्माचार्य जो प्रत्याख्यान कराते है वह दुष प्रत्याख्यान है जिसका कारण बताते है कि जैसे किसी ग्रहस्थ को त्रस जीव की हिंसा नहीं करने का प्रत्याख्यान कराते है तब वहीं जीव जब स्थावरकाय में जाता है तब स्थावर की हिंसा में त्रस का जो जीव उत्पन्न हुआ है उसकी हिंसा हो जाती है अतः यह प्रत्याख्यान बराबर नहीं, दुष प्रत्याख्यान है।
उत्तर में गौतम स्वामी बताते है कि :- आर्य उदयक- त्रस का जीव मरकर स्थावर में जब उत्पन्न होता है तब त्रस हिंसा के प्रत्याख्यानी के हाथ से उस स्थावर की हिंसा होने पर प्रत्याख्यान का भंग होता है यह कथन ठीक नहीं क्योंकि "त्रस नाम कर्म" के उदय से ही जीव त्रस कहलाते है। परंतु जब उनका त्रस गति का आयुष्य क्षीण हो जाता है त्रस काय की स्थिति छोड़कर जब स्थावर में उत्पन्न होता है तब स्थावर नाम कर्म का उदय होने से स्थावर कहा जाता है अतः यह दुषःप्रत्याख्यान नहीं है। (स्कंध दो अध्याय सात)
___इस उदाहरण से भी यहीं निष्कर्ष निकलता है कि तीर्थंकर नाम कर्म के उदय से ही तीर्थंकर कहे जा सकते है पहले नहीं । यदि हम तीर्थंकर के जीव को द्रव्य तीर्थंकर मानकर और जिनका भाव निक्षेपा वंदनीय है उनके पहले के तीनों निक्षेपा वंदनीय है ऐसा मान ले तो भविष्य में होने वाले कई तीर्थंकर के जीव स्थावर में भी हो सकते है जिनकी विराधना, हिंसा होना स्वाभाविक है। एवम हमारे दैनिक व्यवहार में कई जीव तिर्यंच मनुष्य भी है उनकी ताडना प्रताडना आदि विराधना जो होती है उनकी विराधना का प्रतिफल (यदि तीर्थंकर का जीव होने से) द्रव्य तीर्थंकर कहा जाय तो तीर्थंकर की विराधना का फल होता है तो उससे बचना संभव ही नहीं है। उपरोक्त गौतम स्वामी के उदाहरण से स्पष्ट हो जाता है कि जैसे त्रस नाम कर्म के उदय से त्रस कहे जाते है ठीक इसी तरह "तीर्थंकर नामकर्म" के उदय से ही तीर्थंकर कहे जाते है और तीर्थंकर
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नाम कर्म के उदयावस्था में उनकी जो भी विराधना होगी वह तीर्थंकर की विराधना होगी और उसका प्रतिफल भी तीर्थंकर की विराधना का मिलेगा। इसके पहले वह जीव जिस योनी में स्थावर में होगा, तो स्थावर की हिंसा का फल मिलेगा अगर त्रस काय में तिर्यंच या मनुष्य जो भी पर्याय होगा वहीं नाम कर्म का उदय होगा, उसी की विराधना का फल मिलेगा। ठीक इसी तरह भविष्य में होने वाले तीर्थंकर को द्रव्य तीर्थंकर मानकर आज वंदन करने से उसका फल भी उसी अवस्था का अर्थात् जिस नाम कर्म का उदय होगा उसी का फल मिल सकेगा । न कि तीर्थंकर अवस्था का जैसे कि गौतम स्वामी का आर्य उदयक को समाधान है।
4) आज हमारे दैनिक जीवन में भी जब कोई व्यक्ति दिक्षा लेने का निर्णय कर लेता है दीक्षा की तैयारी भी शुरू हो जाती है दीक्षा का दिन भी आ जाता है फिर भी उसे कोई वंदन नहीं करता रास्ते में मिलने पर भी दीक्षार्थी को कोई "मत्थएण वंदामि नही कहता (मुमुक्षु है, दीक्षार्थी है इतना ही कहते है कहा जाता है और कुछ समय बाद जब वह हाथ में रजोहरण लेकर "करेमि भंते" का पच्चक्खाण ले लेता है तब वह साधु कहा जाता है और हर किसी के मुंह से याने जैन दर्शन के श्रद्धालु के मुंह से "मत्थएण वंदामि" शब्द निकल पड़ते है यह प्रत्यक्ष प्रमाण है कि वहीं जीव कुछ समय पूर्व ग्रहस्थ होने के नाते उससे ग्रहस्थ का व्यवहार किया जाता था । निक्षेपा की दृष्टि से वहीं जीव द्रव्य साधु कहा जायगा परंतु उसके साथ साधु जैसा व्यवहार नहीं होता, नहीं हो सकता । और अगर वहीं साधु वहीं जीव कुछ समय बाद दीक्षा छोड़ दे तब वह फिर ग्रहस्थ कहलायेगा और उसका व्यवहार भी ग्रहस्थ जैसा ही होगा । उस व्यक्ति को जानते हुए भी उसे कोई “मत्थएण वंदामि" नहीं कहता, नहीं कहेगा। दीक्षा छोड़ने के बाद व दीक्षा लेने के पहले वहीं जीव द्रव्य निक्षेपा से साधु कहा जाय फिर भी वंदनीय नहीं होता ।
अतः इस तरह हम जिसका भाव निक्षेपा वंदनीय है उसके चारों निक्षेपा वंदनीय है ऐसा सिद्धांत मान ले और उसका जीव द्रव्य निक्षेपा मान ले तो अव्यवहारिक हो जायगा । अकरणीय हो जायगा जो सर्वथा अनुचित है।
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लोगस्स सूत्र
आज हमारी धार्मिक क्रिया सूत्रों में लोगस्स सूत्र का भी एक खास महत्व है। वर्तमान कालीन जिस लोगस्स सूत्र का हम उपयोग करते है उसकी रचना की मान्यता को हम लोग भगवान ऋषभदेव के समय तक ले जाते है इसका कारण मात्र हमारी रुढ परंपरा ही है रूढ परंपरा के कारण हमारा इस तरफ लक्ष्य ही नहीं जाता, कि इसमें सिद्धांत से कितनी विपरितता है विरुद्धता है।
सर्वप्रथम हमें यह सोचना होगा कि अरहंत प्रभू (तीर्थंकर) शलाका पुरुष है शलाका पुरुष कभी एक ही समय में एक ही जगह मिलते नहीं । संयुक्त बैठने का प्रसंग कभी आता ही नहीं । तो एक साथ वंदन का प्रसंग भी कभी नहीं आता नहीं आ सकता ।
जब इतना निर्णय हो जाता है तो फिर क्या कारण है कि इस लोगस्स में हम एक साथ वंदन करते है ? जैसे :- उसम मजिअंच वंदे, संभव मभिणं दणंच, सुमइंच, पउमप्प हं सुपासं जिणंच चंद पहं वंदे । क्या यहां पर अरहंत प्रभू का शलाका पण मिट जाता है या चला जाता है ? नहीं ऐसा कभी होता नहीं, तो हम ऐसा करने से शालाकापन की गरिमा, को मिटाने के अपराधी बनते है आशाधना, विराधना के कारण बनते है।
इसके लिये अनुयोग द्वार सूत्र जो कि एक आगम सूत्र है जिसमें गाथा सं. 203 में स्पष्ट उल्लेख है कि कीर्तन कैसे करें ? यथा पूर्वानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी, अनानुपूर्वी आदि ।
यहां पर एक तीर्थंकर के बाद दूसरे तीर्थंकर का कीर्तन करने का उल्लेख है किन्तु एक साथ दो या दो से अधिक की कीर्तन करने का उल्लेख नहीं है। शायद किसी भी आगम सूत्र में एक साथ वंदन, कीर्तन का उल्लेख नहीं है । जबकि वर्तमानकालीन लोगस्स में एक साथ वंदन कीर्तन किया जाता है । तो क्या हम आगम सूत्रों के उपेक्षा, विरुद्ध आचरण करने से दोष के भागीदार नहीं बनेंगे ? अच्छा या बुरा करणी का फल तो मिलेगा ही । यह सब क्यों? ___और आगे जाकर हम तीर्थंकर प्रभु से प्रसन्न होने की कामना करते है।
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(चउवीसंपि जिणवरा तित्थयरा में पसियंतू) क्या तीर्थंकर प्रभू वीतराग नहीं है? क्या वे कभी अप्रसन्न या प्रसन्न होते है ? अगर ऐसा होता है तीर्थंकर प्रभु जो वीतराग है और सामान्य देवता जो रागी है उनमें क्या फर्क ?
यह कितनी घोर आशाधना का कारण है।
और इसके आगे तो स्पष्ट मांग (मांगणी, Demand) करते है कि हमें सिद्धि पद दे दो (सिद्धा सिद्धी मम दिसंतु) क्या सिद्धि पद युंही मुफ्त में ही मिल सकता है? या मांगने से तीर्थंकर प्रभू दे देते है ?
दर्शनाचार के अंतर्गत दूसरा आचार "निक्कंखिअ" का है इसमें आठ आचार है और जैन दर्शन से ही संबंधित है अन्य से नहीं।
यह दूसरा आचार सूचित करता है कि आकांक्षा रहित आचरण याने प्रतिफल की इच्छा रहित का आचार है । आचार नहीं पालने से अतिचार लगता है।
दूसरे आवश्यक का मुख्य सूत्र “नमोत्थुणं" जिसे शक्र स्तव भी कहते है, जिसका कल्पसूत्र आदि आगम सूत्रों में वर्णन है उसमें कहीं भी प्रसन्न होने, अप्रसन्न होने एवम् कहीं भी कोई मांगने का उल्लेख नहीं है न कहीं संयुक्त नाम है न संयुक्त वंदन है।
इन सभी प्रमाण एवं उल्लेखों को भूलाकर उपेक्षा कर हम जो क्रिया करते है तो हमे शास्त्राज्ञा उल्लंघन का दोष लगेगा । वास्तव में देखा जाय तो लोगस्स का उपयोग काउस्सग करने के पश्चात् ही विशेष रूप से किया जाता
है।
काउस्सग्ग के नियम "जाव अरहंताणं भगवंताणं नमुक्कारेमि न पारेमि” के अनुसार "नमो अरहंताणं" कहकर ही पूरा करते है । अत: यह नियम पूरा हो जाता है । इसके आगे लोगस्स सूत्र की जरुरत रहती ही नहीं, फिर भी हमें बोलना ही है तो बाधा रहित की रचना कर बोलना चाहिये । जैसे :- नमो उसम जिण चंद नमो अजिअ जिण-चंद- नमो संभव जिण चंद.......
जहां तक मेरा विश्वास है कि ऐसी रचनायें चैत्यवासियों के युग में हुई होगी।
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उस समय प्रतिफल की इच्छा का बोलबाला था जहां पर प्रतिफल की इच्छा का ध्येय हो जाता है, सूत्र, सिद्धांत भूला दिये जाते है और विशेषकर शीघ्रातिशीघ्र प्रतिफल लेने की “आकांक्षा' मात्र ही रह जाना स्वाभाविक है।
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जयवीराय
आचार्य श्री रामचन्द्र सूरीश्वरजी एवं आचार्य श्री भूवन भानू सूरीश्वरजी के बीच रामचन्द्र जयवीराय से संबंधित जो मतभेद उत्पन्न हुए थे और कुछ समय बाद दोनों ने एक मत से समाधान कर समाचार पत्रों में प्रकाशित कराया था, उसी के संदर्भ में दोनों आचार्यों को संयुक्त पत्र लिखा गया जिसकी नकल ही यहां प्रकाशित की जाती है।) मार्गशिष शुक्ल 3/2514 1) आचार्य श्रीराचन्द्र सूरीश्वरजी, मुंबई 2) आचार्य श्री भुवन भानू सूरीश्वरजी, कोल्हापुर __वंदना के साथ मालूम हो कि जैन पत्र D. 13-11-87 के मुख पृष्ठ में पढ़ने से मालूम हुआ कि आप दोनों के बीच में जयवीराय से संबंधित "इष्ट फल सिद्धि" के अर्थ पर मतभेद हुआ था, वह सुखद समाधान हो गया, जिसके लिये खुशी की बात है।
। आप दोनों वर्तमानकालीन वृद्ध विद्वान आचार्य है अतः आपको इसकी गहराई में जाना चाहिये था । आप लिखते है कि राजमार्ग तो संसार ना बंधन थी छुटी मोक्ष पामवा माटे छे, छतांपण बाल जीवों ने माटे शास्त्रकारों इह लौकिक आशय वालु धर्म उपादेय गणे छे । इस पर आप विचार करे कि बाल जीव किसे कहा जाय ?
क्या आप जैसे भी बाल जीवों की कोटी में आयंगे ? यदि जयवीराय सूत्र की संपूर्ण अर्थ की गहराई में जाय तो, जैन दर्शन के रहस्य जानने वाले और उस पर अटूट श्रद्धा रखने वाले के लिये जयवीराय सूत्र कहने की जरुरत ही नहीं रहती और इसमें आने वाले इष्ट फल सिद्धि का विवाद ही नहीं उठता।
जयवीराय सूत्र को प्राणिधान सूत्र कहा जाता है। प्राणिधान का अर्थ संस्कृत शब्दकोश में भावपूर्वक चिंतन, मनन, एकाग्रता कहा गया है जबकि हमारे पंचाशक सूत्र में प्रकरण चार गाथा 29 में इसी अर्थ के अलावा एक और अर्थ किया गया है वह है, "मांगणी, प्रार्थना, विनयपूर्वक
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मांगणी" जयवीराय सूत्र में मांगणी की ही बहुलता है अतः हमें यह विचार करना है कि वीतराग देव के पास हमारे जरुरीयात की मांगणी की जाय ? क्या मांगणी करना उचित है ? और क्या मांगने से दे देते है? या मांगे बिना देते नहीं ? इसके लिये ग्रहस्थ जीवन का एक उदाहरण पेश करता
एक सेठ है और एक सेवक है सेठ के पास सेवक काम करता है। सेवक को यह मालूम हो जाय कि सेठ ईमानदार है योग्य है, उदार है, कंजुस नहीं है, बेइमान नहीं है, अयोग्य नहीं है, इतनी बात जानने के बाद अगर सेवक समझदार है मेहनतकश है, ईमानदार है, वफादार है तो सेठ से मांगेगा क्या ? वह यह कहेगा क्या ? कि मुझे इतना दो, यह दो, वह दो, मैंने यह किया है वह किया है यह प्रत्यक्ष प्रमाण है कि ऐसी स्थिति में कोई नहीं मांगता, मांगना वहीं होता है जिसे या तो सेवक को सेठ की इमानदारी पर शंका हो या कम काम करके ज्यादा दाम लेना हो । इस अनुभव के उदाहरण से क्या प्रेरणा ले सकते है ?
जैन दर्शन का अटल सिद्धांत है कि जितना करेंगे उतना मिले बिना रहेगा नहीं, मोक्ष भी मांगने से मिल सकता नहीं जबकि मोक्ष के. प्ररूपक अरहंत प्रभु की आज्ञानुसार कार्य करने से ही मिल सकता है।
इससे स्पष्ट है कि अरहंत भगवंत हमारे स्वामी है और हम उनके सच्चे सेवक है अतः हमे निष्काम भक्ति करना हमारा परम कर्तव्य है।
बाल जीव अज्ञानतावश कोई भी लौकिक मांगणी करें या इस उद्देश्य से क्रिया करे तो यह अपवाद है उसे समझने का प्रयत्न किया जाय उसके बदले में स्वयं भी वही क्रिया करें तब बाल जीवन कहाँ तक ? अज्ञानता कहां तक ? इस अपवाद को ही मुख्य मान लिया जाय और ऐसे ही सूत्रों का नित्य पाठ किया जाय तब अपवाद कहां रहा ? इसके लिये हमें हमारी अज्ञानता को देखना होगा ।
जैन दर्शन के तीर्थ तीर्थपति तीर्थंकर प्रभू महान है सर्वज्ञ है ऐसे अरहंत प्रभू की महानता योग्यता, सर्वोपरिता को समझना होगा और यह समझ में आ जाय तो मांगने की जरुरत ही नहीं रहेगी मात्र आज्ञानुरुप कार्य करने का ही लक्ष्य रहेगा ।
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अतः अनुरोध है कि अरहंत प्रभु की महानता को समझे और उनके लोकोत्तर सिद्धांत को टिकाये रखे यहीं एक हार्दिक इच्छा । इस लेख से आपको अविनय जैसा लगेगा अतः क्षमा करें ।
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तीन थुई- चार थुई
आज जैन समाज में दो भेद ऐसे भी है जो लगभग सभी क्रिया विशेषों में समान होते हुए भी मात्र स्तुति का ही मतभेद है जो कि तीन थुई चार थुई के नाम से प्रसिद्ध है। यह मतभेद भी कभी कभी तनाव पैदा कर देता है यदि इसको. गहराई से देखा जाय तो वास्तविकता कुछ और ही है यहां पर यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि तीन थुई चार थुई से जो संबंध है वह काउस्सग के साथ से संबंध है व देवी देवताओं की थुई (स्तुति) से संबंध है।
चैत्य वंदन या देव वंदन करने की विधि मे अरहंत चेइयाणं करेमि काउस्सगं कह कर काउस्सग किया जाता है और काउस्सग पूरा होने पर स्तुति याने थुई बोली जाती है।
अरहंत चेइयाणं करेमि काउस्संग :- वंदण वत्तिआओ पुअण वत्तिआओ, सक्कार वत्तिआओ, सम्माण वत्तिआओ, आदि के लिये काउस्सग करता हूं याने काया को वोसिराता हूं।
यहां पर यह सोचना है कि क्या हम काया को वोसिराकर वंदन, पूजा सत्कार सम्मान आदि कर सकते है ? इन कार्यों के लिये तो काया को सक्रिय बनाना ही पड़ता है। वंदन के लिये पांचों अंगों को सक्रिय बनाने से ही भूमि स्पर्श होकर या चरण स्पर्श होकर पूर्ण वंदन या पंचाग नमस्कार हो सकता है मुंह से बोलना भी पड़ता है पूजा में भी सारा शरीर सक्रिय किये बिना पूजा नहीं हो सकती ।
__ जबकि हमारे यहां पर उल्टी गंगा जैसा वर्णन है । अगर हमें अरहंत प्रभू की पूजा, भक्ति, वंदन आदि करना है तो काउस्सग से ये कार्य होते नहीं, अतः काउस्सग की जरुरत ही नहीं क्योंकि काया की प्रवृति से ही ये हो सकते है।
निष्क्रिय बनकर उनके सामने रहना उनका सत्कार, सम्मान नहीं, अपमान है उपेक्षा है अत: तत् संबंधी काउस्सग ही नहीं तो तत् संबंधी स्तुति का प्रश्न ही नहीं उठता तो तीन चार का प्रश्न ही क्या ?
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और भी विचित्र बात तो यह है कि काउस्सग व इसकी थुई भगवान के सामने ये सभी कार्य (पूजा, वंदन आदि) करने के बाद किया जाता है। क्या हमने पूजा आदि गलत कार्य किये है जिसके प्रायश्चित रूप में यह काउस्सग की क्रिया की जाती है ? नहीं क्योंकि अन्य काउस्सग करते वक्त तस्स उत्तरी बोलकर याने इसके पहले प्रायश्चित रूप इरियावहीयं जो किया है उसकी विशेष शुद्धि के लिये याने पाप कार्य को सर्वथा निर्घात करने के लिये काउस्सग किया जाता है अतः भगवान के पूजा वंदन निमित काउस्सग करना पूजा वंदन को पाप कार्य समझना होता है जो सर्वथा अनुचित है कदाचित यह प्रश्न हो कि भगवान के सामने काउस्सग नहीं कर प्रतिक्रमण में तो कर सकते है :- उत्तर नहीं क्योंकि निमित हेतु वहीं है अतः यह भी उचित नहीं ।
चौथी थुई जो कि अविरति देवि देवताओं से संबंधित है जिसकी अनिवार्यता के लिये कई कृत्रिम सूत्रों के अतिरिक्त एक आगम सूत्र का प्रमाण भी पेश किया जाता है वह है "ठाणांग" सूत्र अत: पहले इसी पर विचार करें । ठाणांग सूत्र पंचम ठाणा द्वितीय उद्देशा (गाथा 134) पंचम ठाणोहिं जीवा सुलभ बोधियत्ताण कम्मं पकरेति, तं जहाः अरहंताणं वण्णं वदमाणे अरहंत पणत्तस्स, धम्मस्स वण्णं बदमाणे, आयरिय उवज्झायाणं वण्णं वदमाणे चउवण्णस्स संघस्य वण्णं वदमाणे- विवक्क तब बंभ चेराणं देवाणं वण्ण वदमाणे :- अर्थ पांच कारणों से जीव सुलभ बोधि कर्म उपार्जन करता है (1) अरहंतों का वर्णवाद (2) अरहंत प्रज्ञप्त धर्म का वर्णवाद (3) आचार्य उपाध्याय का वर्णवाद (4) चतुर्विध संघ का वर्णवाद (5) विवक्क तपबभचेर देवों का वर्णवाद ।
इस गाथा में पांच स्थानों के गुणगान की बात है संख्या पांच बताई गई है जिसमें से चार तक तो किसी को कोई आपत्ति नहीं पांचवें में विवक्क तव बंभ चेराण देवाणं इस से संबंधित है यही उलझन है और इसी का भी एक खास आधार मानकर देवताओं को स्थान चौथी थुई में दिया गया है |जबकि तव बंभ चेराणं शब्द को गौण कर दिया है उस पर लक्ष्य ही नहीं दिया जाता है अत: वास्तविकता यह है कि :- उपरोक्त चारों पद या पदाधिकारियों के अतिरिक्त जो आत्माये परिपूर्णता से प्रकर्षता से तप करते है ब्रह्मचर्य पालते है वे देव के सहश है। जैसे ब्रह्म देवता, धर्म देवता
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- आदि । उनके गुणगान की बात है न कि उन देवताओं की जो न तप कर
सकते है न ब्रह्मचर्य पाल सकते है अगर इन देवताओं से संबंध होता तो इस पद के पीछे तप ब्रह्मचर्य शब्द लगाने का प्रयोजन ही नहीं रहता।
आज भी विशिष्ट तपस्या करने वालों का ब्रह्मचर्य पालने वालों का । बहुमान किया जाता है विजय सेठ-विजया सेठाणी को आज भी याद किया जाता है।
छः आवश्यक में (1) सामायिक (2) चउवीस स्तवन (3) वंदन (गुरु) (4) प्रतिक्रमण (5) काउस्सग (6) पच्चक्खाण । इन छ: आवश्यकों में दूसरा आवश्यक स्तवन अर्थात् कीर्तन गुणगान जो है वह तीर्थंकरों से संबंधित है अन्य से नहीं तो देवताओं का गुणगान नित्य आवश्यक क्रियाओं में किस आवश्यक के अन्तर्गत आयेगा ? इस समस्या पर विचार करना होगा।
कभी किसी व्यक्ति द्वारा विशिष्ट धार्मिक कार्य, तप, ब्रह्मचर्य आदि किये जाते है तो उनकी प्रशंसा भी प्रसंगोपात ही की जाती है । दैनिक कार्य नहीं । विधि मार्ग नहीं। आज भी प्रतिकमण में छ: आवश्यक की क्रिया पूरी होने पर सऽझायके रूप में इन्हें याद किया जाता है इनके तप त्याग को याद कर वैराग्य भावना उत्पन्न हो यहीं एक हेतू होता है।
श्रूत का श्रूत देवता अर्थ भी जिन वाणी से ही संबंधित है यदि इसका अर्थ यह करें कि श्रुत का अधिष्ठाता कोई देवी-देवता होता है तो यह असंभव है जिनवाणी के अधिकारी आचार्य उपाध्याय होते है न कि असंयमी देवी देवता ।
इनको याने आचार्य उपाध्याय को श्रुत का अधिष्ठाता कहा जाय तो अनुचित नहीं हो सकता । इन दोनों पदाधिकारियों का कर्तव्य भी है पंच परमेष्टि में स्थान भी है इनकी दिनचर्या का विशेष भाग भी यही है कि साधू साध्वीओं को व श्रावक श्राविकाओं को अध्यापन कराना एवं संशयों का समाधान करना है।
कोई भी देवी देवता अध्यापन कराने आते नहीं । कभी कोई जटिल प्रश्न उपस्थित हो और निकट में समाधान कर्ता न हो तो दूर जाकर
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ज्ञानी भगवंत से पूछकर उत्तर लाने में सहाय कर सकते है किन्तु वे खुद प्रायः नहीं करते । सरस्वती, लक्ष्मी ये तो सिर्फ ज्ञान व ऋद्धि के काल्पनिक नाम है, कोई व्यक्ति विशेष नहीं।
आज हमारी शिथिलता इतनी बढ़ गई है एवं मनोबल इतना कमजोर हो गया है कि प्रति क्षण हम सहायताकी आवश्यकता समझते है हममें न सहन करने की शक्ति है न कर्म पर विश्वास है । इसी कारण से देवी देवताओं की सहायता को आवश्यक क्रियाओं में जोड़ कर उनकी शरण में जाने लगते है।
जैन दर्शन लोकोत्तर है आत्मिक है कर्म प्रधान भी है ऐसा समझ में आ जाय तो कई समस्याओं का समाधान हो जायगा परंतु हमारी रुढी परंपरा के कारण जीत व्यवहार का बहाना आगम सूत्रों के लिपिबद्ध होने के बाद के आचार्यों की रचनाओं व क्रियाओं पर एक पक्षीय श्रद्धा ये सभी समझने में काफी पर्याप्त समय व शक्ति लगा सकते है।
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मंत्र ज्योतिष
आज जैन दर्शन के प्रायः सभी समुदाय व सभी वर्ग मंत्र एवं ज्योतिष का निमित्त आधार आश्रय लेते है क्या जैन दर्शन के शुद्ध आराधक को यह उचित है ? कृपया निम्न पंक्तियों पर ध्यान दें :
1) उत्तराध्ययन सूत्र :- भाषांतर कर्ता पन्यासजी श्री भद्रकंर विजयजी अध्याय 8 गाथा 13 जे लक्खणंच सुविणंच अंगविज्जंच जेपउजंति नहु ते समण वुच्चंति एवं आयरिय अक्खायं ।। (सामुद्रिक स्वप्न शास्त्र अंग स्फुरण रूप अथवा ॐ ह्रीं विगेरे अंग विद्या गमे ते अंक के समस्त नो प्रयोग करे ते साधुओं कहवाय नहीं एम आचार्यों ऐ कहेल छे ।)
2) उत्तराध्ययन सूत्र : अ 15 गाथा 8 :- मंत्र मूलं विविहं विज्जचितं विरेअण धूमनित सिणाणं । आउरे सरणं तिगिच्छ तंच परिणणयं, परिवओस भिक्खु ।। (ॐकार थी मांडीने स्वाहा पर्यंत मंत्र, सहदेवी, मुलिका विगेरे सर्वज्ञ परिज्ञा थी जाणी अने प्रत्याख्याव परिज्ञा थी छोडी संयम मार्ग मां विचरे तेज साधु छे)
3) नवी मुंडी अण समणो, न ॐ कारेण बंभणो, न मुणी वण वासेणं कुस चिरेण न तवसो । 25 गाथा 30
4) मंता जोगं काउं भुइकम्मं च जे पउजंति । सायर खइढि हे उं अभिओग भावण कुणइ ।। 36-262
5) अणु बुद्ध रोस पसरो तहय निमित्तमि होइ पडिसेवि । एएहिंकारणाोहिं आसुरिअं भावणं कुणई (मंत्रो, योगो भूति कर्म विगेरे अमिओगी भावनाओं छे, निमित्त आदि आसुरि भावाओं छे आथी अनंत संसार सागर मां भमवानु छ ।) ___6) दशवैकालिक सूत्र : अध्याय 8 गाथा 51 : णक्खतं, सुमिषं, जोगं, मंतं निमित्तं, भसेजं गिहिणे तंण आइक्खे भुयाहि गरणं पयं || नक्षत्र, स्वप्न, योग, मंत्र, निमित्त, भेषज्य ग्रहस्थों को न बताये। 7) समवायांग सूत्र : 29 : एगुणतीसइ विहं पावसुय पसंगेणं पण्णति तं जहा :
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(पाप उपार्जन करने वाले उत्तीस प्रकार कहे गये है, जिसमें सत्तावीसमा मंत्रानुयोग है)
8) ठाणांग सूत्र:- ठाणा नवम गाथा सतावीस । नवविधे पाव सुय पसंगे पण्णते तं जहां :- उप्पति, निमित्तं, मंते आइक्खिए तिगिच्छाए (पाप सूत्र नौ प्रकार का कहा गया है जिसमें निमित्त, मंत्र भी आया है)
9) तित्थोगाली पइन्नयं गाथा = 800 मंतेहियं, चुणेहियं, वुच्छिय विज्जाहिं तह निमित्तेणं काउण अवग्धायं भमिहंति अनंत संसारे । मंत्रों, चूर्णो कुत्सित विद्याओं निमित्तों द्वारा उपघात कर अनंत संसार सागर तक भटकते रहेंगे (शोधक, अनुवाद : पन्यासजी श्री कल्याण विजयजी एवम् ठा. गजसिंह राठौड़) न्याय व्याकरण तीर्थ
___10) योग शास्त्र : आठमो प्रकाश गाथा 71 (रचयिता : कालिकाल सर्वज्ञ- (भाषांतरकर्ता : आचार्य श्री हेमसागर सूरीश्वरजी) श्री हेमचन्द्रचार्यजी) मंत्र प्रणव पूवेडियं फल मैहिक मिच्छामिः ध्येयः प्रणव हिनस्तु निर्वाण पद कांक्षिभी: नमो अरहंताणं: आलोक संबंधी फलनी इच्छा वालाएं ऊंकार सहित ध्यान करवु परंतु मोक्षनी इच्छा वालाऐ तो प्रणव रहित पद नु ध्यान करवु ऊ प्रणव वालों मंत्र छ ।
11) बौद्ध भिक्षुओं में विक्रम की पांचवीं छठी शती में तंत्रवाद का प्रचार हो गया था पर जैन श्रमण इससे बचे हुए थे, बौद्धों के उत्तर भारत से चले जाने के बाद जैन श्रमणों में भी कहीं कहीं मंत्रतंत्र का प्रचलन हुआ, उपसर्ग हर स्तवादि स्त्रोतों की उत्पति इसी समय में हुई थी यह समय था विक्रमी नवी दशवी शती । (प्रबंध पारिजात :- पेज 118-119 : लेखक- पन्यासजी श्री कल्याण विजयजीगणी, जालौर)
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"सिद्ध चक्र"
आजकल सिद्ध चक्र की आराधना तत् संबंधी ओली तप शाश्वत है ऐसी मान्यता प्रचलित है जिसका मूल आधार "श्रीपाल चरित्र" है इस चरित्र के आधार व उपदेश से सिद्ध चक्र की आराधना का विशेष महत्व दिया जाता है लेकिन साहित्य क्रिया व इतिहास की गहराई में जाने से कई बात सिद्धांत से विरुद्ध जाती है वे निम्न है।
1) अगर ओली तप एवं सिद्धचक्र शाश्वत होता तो श्रीपाल चरित्र में आचार्य श्री मुनिचन्द्र सूरीश्वरजी का मयण सुंदरी को यह कहना कि मैं तुम्हें एक निर्दोष यंत्र उदृत करके बताता हूं जिसकी आराधना करने से इहलोक परलोक संबंधी इच्छायें पूरी होती है यह कहने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती, सामान्यता यहीं कहा जा सकता था, कि आने वाले चैत्र या आशोज माह जो भी पहले आता हो उसमें ओली तप कर देना व सिद्धचक्र की आराधना कर देना चाहिये ।
2) राजा संप्रति द्वारा लाखों प्रतिमायें भराने का उदाहरण मिलता है किन्तु सिद्धचक्र यंत्र भराने का उल्लेख कहीं भी नहीं आता । ___3) श्रीपाल कथा में तप द्वारा पौद्धगलिक उपलब्धियों का ही विशेष वर्णन है आत्मिक उपलब्धियों का कुछ भी नहीं जैसे पौषध, पडिमावहन, अनशन, अवधिज्ञान आदि ।
4) उपासक दशांग सूत्र में भगवान महावीर के शासन में उत्कृष्ट श्रावकों का वर्णन है जिसमें पौषध व्रत, पडिमावहन, अनशन आदि का ही वर्णन है वहां कहीं भी किसी श्रावक द्वारा ओली तप या सिद्धचक्र की आराधना संबंधी कोई उल्लेख नहीं है।
5) अरहंत भगवंत समवसरण में सिंहासन पर बिराजते है तब उनकी पर्षदा में आचार्य, उपाध्याय, साधु, भगवंत उनके आसान से नीचे श्रोतागण की मुद्रा में ही बैठते है, उपदेशक के रूप में नहीं । समश्रेणी आसन पर भी नहीं । जबकि सिद्धचक्र में समश्रेणी आसन पर दिखाया जाता है।
6) आज भी अरहंत भगवंत की प्रतिमा के सामने गुरु वंदन नहीं किया जाता वैसे तो मंदिर में गुरु वंदन करने का प्रसंग नहीं आता परन्तु लासागरपरि आनन
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उपाध्यानादि क्रिया कराते वक्त तीन गढ़ बनाकर, चौमुखी प्रतिमायें स्थापित कराते है तब वहां पर अमुक क्रिया करते करते गुरु वंदन की क्रिया भी आती है तब गुरु महाराज (क्रिया कराने वाले) अन्य व्यक्ति द्वारा प्रतिमाओं के आगे कपड़े का पर्दा कराते है और बाद में गुरु वंदन की क्रिया कराते है ताकि गुरु वंदन करते वक्त अरहंत प्रभू की प्रतिमाजी दिखाई न दें । जबकि ओली तप के आराधना की क्रिया करते वक्त सिद्धचक्र यंत्र के सम्मुख यह नियम नहीं रखा जाता ।
7) आगम सूत्रों में ओली तप या सिद्धचक्र का वर्णन नहीं है।
8) सिद्ध भगवंत अरुपी है वर्ण, गंध आदि से रहित है जबकि इस यंत्र में सिद्ध भगवंत का लाल वर्ण बताया जाता है जिसका कोई आधार नहीं ।
9) ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप ये चारों आत्मा के गुण है ये चारों गुण किसी न किसी आत्मा के अंदर ही रहते है आत्मा से पृथक नहीं रह सकते । गुण गुणी के अंतर्गत ही रहता है जैसे शक्कर के अंदर मिठास है परन्तु शक्कर और मिठास अलग अलग नहीं हो सकते, वैसे ही गुण गुणी से पृथक नहीं हो सकते ।
(नवकार) पंच परमेष्टि सूत्र में पंच परमेष्टिओं को ही नमस्कार का वर्णन है ज्ञान दर्शन, चारित्र, तप का अलग से वर्णन नहीं वंदन नहीं ये चारों ही गुण पंच परमेष्टिओं में निहित है, फिर भी सिद्धचक्र यंत्र में अलग अलग बताना विभिन्न क्रिया करने का कोई औचित्य नहीं रहता।
10) पन्यास श्री कल्याण विजयजी (जालौर) अपनी पुस्तक निबंध निचय में निम्न प्रकार से सिद्धचक्र के बारे में उल्लेख करते है। A. श्रीपाल कथा विक्रमी पनरहवी शती की एक प्राकृत कथा है। B. जैनों में आज से 1500 वर्ष पहले मंत्र, तंत्र की चर्चा तक नहीं थी। C. प्रस्तुत सिद्धचक्र यंत्रोद्वार पूजन विधि जैन सिद्धांत से मेल नहीं खाने वाली एक अगीतार्थ प्रणीत अनुष्ठान पद्धति है।
11) एवं श्री सिद्धचक्र स्याराधको विधि साधक : सिद्धाख्योऽसौ महामंत्र यंत्रः प्राप्नोति वांछितम ||१|| 26) क्या यह सत्य है ?
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धनार्थी धन माप्नोति, पदार्थी लभते पदम् भार्यार्थी लभते भार्या, पुत्रार्थी लभते सुतान् ||२|| सौभाग्यार्थी च सौभाग्यं, गौरवार्थी च गौरवं
राज्यार्थी च महाराज्यं लभतेऽ स्यैव तुष्टितः ॥३॥ एन तपो विधायित्यो, योषिऽपि विशेषतः वनध्या निन्द्यानि दोषाणं पयच्छन्ति जलांजलिम ||४||
अर्थ :इस प्रकार श्री सिद्धचक्र का आराधक विधिपूर्वक साधना करता हुआ महामंत्र यंत्र मय बनकर मनोवांछित फल को प्राप्त करता है ||१||
धन का इच्छुक धन को स्त्री का अभिलाषी स्त्री को, पदाधिकार का इच्छुक पदाधिकार को, पुत्रार्थी पुत्र को प्राप्त करता है | ||२|
सौभाग्यार्थी सौभाग्य को, गौरव का अर्थी गौरव को, राज्य का अर्थी महाराज्य को प्राप्त करता है ||३|| यह सांसारिक सुखों की अभिलाभा है इस (सिद्धचक्र) तप की आराधना करने वाली स्त्रियों भी खासकर वन्ध्यात्व, मृत वत्सात्व आदि दोषों को जलांजलि देती है ।
उपरोक्त श्लोकों में वर्णित जिन आदि पदों के आराधक पुरुष व स्त्रियों को पौद्रलिक फलों का प्रलोभन दिया गया है जो कि परमेष्टि पदों की व तप आदि का उपहास मात्र है। अतः उपयुक्त कथन शास्त्र विरुद्ध ही नहीं सम्यक्त्व को बाधक भी है । जिनेन्द्र देव से निष्काम भक्ति करना ही आगम प्रमाण है ।
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नव स्मरण
विभिन्न धार्मिक क्रियाओं में एवं अन्य भौतिक शांति हेतु नव स्मरण का पाठ किया जाता है विशेषकर प्रतिष्ठा विधि आदि में तो अनिवार्य रूप से उभय काल किया जाता है ।
आज एक मान्यता यह भी है कि प्रतिष्ठा विधि आदि में देवी देवता उपद्रव न करे अतः इसके रक्षण का भी एक कारण माना जाता है ।
नव स्मरण में आने वाले सूत्रों में भौतिक सुख का वर्णन करने वाले कुछ उदाहरण यहां प्रस्तुत है ।
(1) नमस्कार सूत्र :
नवकार जो कि संपूर्ण आध्यात्मिक है वीतरागता से प्रेरित है नमस्कार करने का सूचित करता है ।
(2) उवस्सग्गहरं स्तोत्र :
यह तीर्थकर भगवंत पार्श्वनाथ से संबंधित है जिसमें
विसहर फुलिंग मतं कंठे धारेइ जो सयामणुओं तस्स गह रोग मारि दुट्ठ जरा जंति उवसामं ॥ अर्थ :विषधर फुलिंग मंत्र को जो मनुष्य धारण करता है उसके ग्रह, रोग, मरकी, दुष्ट, ताव, भय आदि शांत हो जाते है ।
(3) "संतिकरं " :
ॐ सनमो विप्पो सहि पत्ताणं संति सामि पायाणं झौं स्वाहा मंतेण सव्वा सिव दुरिह हरणाणं
ॐ संति तमुक्कारो खेलो सहि माइ लद्धि पत्ताणं सों हीं नमो सव्वो सहि पताणं च देइ सिरि
ॐकार सहित नमस्कार, विप्रोषधि नामक लब्धि को प्राप्त शांतिनाथ के चरण झों स्वाहामंत्र बीज से सर्व उपद्रव हरने वाले ॐकार सहित शांतिनाथ का नमस्कार लक्ष्मी को प्राप्त करता है । आगे रखंतु मम रोहिणी याने रोहिणी आदि सोलह देवियों से भी रक्षा का आवेदन किया
गया है ।
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(4) निजय पहुत :सतरी पणतीसा विय, सट्टी पंचेव जिण गणो ऐसो । वाहि जल जलण हरि करि, चोरारि महाभय हरं ।।।
सितेर, पेंतीस पेसठ कुल एक सौ सित्तर (170) जिनेश्वरों से व्याधि, जल, अग्नि, सिंह, हाथी चोर आदि महाभयों के हरने को कहा गया है। (5) नमिउण स्तोत्र
सडिय कर चरण नह मुह, निबुद्ध नासा विवन्न लायन्ना; कुटु महा रोगा जल, फुलिंग निदृढ़ सव्वंगा ।। ते तुह चलणा राहण, सलिलंजलि सेय बुढियच्छाया; वणदव दड्ढा गिरिपायन पता पुणोलच्छिं ।।
अर्थ :- जिसके हाथ, पैर, नख, मुंह आदि सड़ गये है, नाक बैठ गया है रुप नष्ट हो गया हो ऐसे महारोग कुष्ट से सर्वांग दग्ध जैसा हो गया हो ऐसा हे भगवान (पार्श्वनाथ) तुम्हारे चरण कमल की सेवा से निरोग होकर
कांतिवान हो जाते है। १४गाथा नं. 4, 5 में जल भय, 6, 7 में अग्नि भय, 8, 9 में विष भय, 10, 11 में अश्वी भय, 12, 13 में सिंह भय, 14, 15 में गज भय, 16, 7 में रण भय आदि भयों के निवारण के महात्मय बताये गये है। (6) अजित शांति स्तवन :
इसमें ऊंकार आदि मंत्र का उच्चार तो नहीं है किन्तु कुछ गाथाये आपत्तिजनक है । उदाहरण :- गाथा नं. 26, 27 : अंब रंतर विआरणि अहिं ललिअ हंसवहु गामिणि आहिं पीण सोणिथण सालिणि आहि सकल कमल दल लोअणि आहिं।। पीण निरंतर थण भर विणं मिअ गायल आहिं मणि कंचन पसि दिल मेहल सोहि अ सोणि तडाहिं वर खिखिणि नेउर सतिलय वलय विभूसणि आहिं रइकर चउर मणोहर सुंदर दंसाणि आहिं ।। आकाश में विचरने वाली हंस की तरह गतिवाली, जिसके नितम्ब व
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स्तन पुष्ट है से शोभित कमल पत्रों के समान आंख वाली एवम् दोनों स्तनों के बीच अंतर नहीं है ऐसे पुष्ट स्तनों से जिसका शरीर झुका हुआ है रत्न और सुवर्ण के आभूषणों से शोभित कटि तट वाली उत्तम कंकण चूंटरु आदि अनेक प्रकार से मनुष्यों के मन को हरने वाली रूपवान देवी
यह स्तवन तो तीर्थंकरों के गुणगान का है किन्तु यह सब गौण कर उपरोक्त गाथा में देवी के अंग रूप आदि के गुणों को ही गाया गया है क्या चारित्रवान के लिये ऐसे गुणगान करना उचित है जो कि कामोत्तेजक हो सकते है।
"भक्तामर"
इस सूत्र में विशेषतः प्रथम तीर्थंकर भगवंत के गुणगान का वर्णन है फिर भी गाथा नं.34 में गज भय, 35 में सिंह भय, 36 में अग्नि भय, 37 में सर्प भय, 38 में संग्राम भय, 40 में जल भय, 41 रोग भय, 42 में बंधन भय आदि भयों के निवारण में तीर्थकर भगवंत का प्रभाव बताया गया है जो कि भौतिकी है। "कल्याण मंदिर"
इसमें भगवान के गुणों का विभिन्न प्रकार से वर्णन है एवं इनके प्रभाव से कर्म क्षय का कारण बताया गया है कहीं भी मंत्र का उच्चार नहीं है एवं अष्ट महा प्रातिहार्य का विशिष्ट प्रकार से वर्णन जो तीर्थंकर प्रभू को केवल ज्ञान होने से उत्पन्न अतिशयों कोसूचित करता है । अतः अनुकरणीय एवं अनुमोदनीय है। “वृहद शांति"
इसमें तो प्रायः संपूर्णतया भौतिक दु:खों के निवारण एवं सुखों के प्राप्त होने की कामना का वर्णन है।
तीर्थंकर भगवंत मानो रुठ गये हो उद्घोष पूर्वक प्रसन्न होने को एवं शांति करने को कहा गया है। - चंद्र, सूर्य, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु, केतू आदि देवताओं
को प्रसन्न होने के साथ साथ राज्य के खजाने को भरने को आवेदन किया गया है।
क्या यह सत्य है ?
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ॐ पुत्र, मित्र, भाई, स्त्री, स्वजन आदि बंधुओं के लिये समस्त प्रकार से आमोद प्रमोद होने की कामना की गई है।
सामायिक धारियों के लिये विशेषकर उन मुनि महाराजों के लिये जिसने संसार छोड़कर पंच महाव्रत धारण कर लिये है उनके लिये ऐसा करना क्या उचित हो सकता है ?
क्या नवकोटी पच्चक्खाण का भंग नहीं होता ?
यह चारित्राचार का कितना मखौल है । उपेक्षा है ।
इतने पर भी तृप्ती नहीं होने से कई तरह के (भौतिक सुख प्राप्त हेतु ) पूजा अनुष्ठानों का निर्माण किया गया है किया जा रहा है ।
पद्मावती पूजन, ऋषिमंडल आदि इसी की देन है ।
इन अनागमिक, भौतिक अनुष्ठानों को देखकर वर्तमान सदी के प्रसिद्ध विद्वानों में से प्रसिद्ध इतिहास वेत्ता प्रन्यासजी श्री कल्याण विजय जी अपनी पुस्तक "निबंध निचय" में लिखते है कि ऐसे निस्सार अनुष्ठानों को हमारा जैन धर्म जो कि लोकोत्तर है लौकिक होता जा रहा है ।
एक बंगाली अजैन विद्वान लेखक जिसने अंग्रेजी में जैनों का इतिहास लिखा है जिनका नाम "असीम कुमार राय" है लिखते है कि जैनों में न तो कोई मंत्र है न पुरोहित याने मंत्र विधि विधान कराने वाले पंडित | देखिये. : हिन्दी अनुवाद पेज नं. 4 व 95 )
I
आगे यह भी लिखते है कि देवताओं की एक श्रेणी जो काफी लोकप्रिय हुई वह थी "विद्या देवी" सर्वप्रथम केवल एक ही विद्या देवी थी बाद में नई नई देवियां जुड़ गई और अब सोलह विद्या देवियां है ।
दशवैकालिक सूत्र की उस गाथा को हृदयगंम कर ले तो न किसी मंत्र की आवश्यकता है न देवी देवताओं के अनुरोध की। न इनकी साधना की ।
धम्मो मंगल मुक्किद्वं, अहिंसा संजमो तवो । देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मो सयामणो ॥
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अमर कुमार व सुभद्रा श्राविका ने न तो कोई मंत्र आराधना की थी न किसी देवी देवता की साधना की थी केवल उनके त्याग और श्रद्धा भक्ति से प्रभावित होकर देवता स्वयं आये थे । अर्थात तपस्वियों के चरणों में देवी देवता वन्दन करने स्वयं आते है ।
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-: देव द्रव्य :
पू. आचार्य श्री रामचन्द्र सूरीश्वरजी को लिखे गये मूलपत्र की प्रतिलिपी यहां प्रकाशित की जा रही है ।
वंदना के साथ मालूम हो कि अहमदाबाद में अभी अभी श्रमण सम्मेलन में जो-जो निर्णय लिये है उसके बारे में आपके द्वारा या आपके अनुयायीयों द्वारा दैनिक समाचार पत्रों में काफी विरोध हो रहा है जिसमें विशेष कर देव द्रव्य संबंधी ऐसा कुछ समाचार पत्रों से मालूम होता है ।
मेरा आपसे अनुरोध है कि आप को इस विषय की गहराई में जाना चाहिये और इसका विरोध करना है तो मात्र जैन समाचार पत्रों में, ताकि अजैनों में फूट का प्रदर्शन न हो ।
1) जहां तक मेरा अनुभव है देव द्रव्य संबंधी जो वर्तमान कालीन मान्यता है वह सब चैत्यवासियों द्वारा अपनाई गई प्रवृति है जैन दर्शन के मौलिक सिद्धांत से सर्वथा विपरित है ।
2) देव द्रव्य :- जैनियों के मान्य पंच परमेष्टि में सर्वोत्तम प्रथम परमेष्टि “अरहंत” प्रभू लोकोत्तर देव है ऐसा प्रथम मानना होगा और ऐसा मानने से इनका जो भी द्रव्य होगा वह भी लोकोत्तर होगा इतनी बात अनुभव में आ जाय तो वर्तमान कालीन मान्यता, मतभेद अपने आप समाप्त हो जायगा ।
3) जिन महान विभूतियों ने (अरहंत प्रभू) जिस द्रव्य को हेय मानकर छोड़ दिया उसी द्रव्य को याने आर्थिक धन रूपी द्रव्य को उन्हीं के नाम से करना और उसके उपयोग के बारे में क्लेश का वातावरण करना क्या उचित है ?
4) जैन दर्शन के प्ररूपक अरहंत देव का द्रव्य ज्ञान, दर्शन, चारित्र है जो अक्षय अखंड, अव्याबाद है और इसी कारण से उनके अनुयायी साधु वर्ग का भी पंच परमेष्टि में स्थान होने से उनका द्रव्य भी वही हो सकता है भले ही वह आंशिक हो यहीं गुरु द्रव्य कहलाने योग्य है ।
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5) सम्मेलन में दिये गये प्रमाणों से भी वर्तमान कालीन देव द्रव्य की प्रथम व्याख्या “संबोध प्रकरण" में उपलब्ध होती है जो विक्रम की आठवीं शताब्दि का ग्रन्थ है उसके पहले के किसी ग्रंथ में या किसी आगम सूत्र में इसका कोई उल्लेख नहीं है अतः इसका यहीं निष्कर्ष निकलता है कि आचार्य श्री देवधि गणी द्वारा आगम सूत्रों के लिपीबद्ध होने तक इसकी ऐसी व्याख्या मान्यता नहीं थी।
6) आर्थिक धनरूपी द्रव्य को लोकोत्तर देव के नाम से करना, कराना और जिनका पंच परमेष्टि में स्थान है उनको इस विषय में पड़ना अनुचित लगता है यह विषय ग्रहस्थों का हो सकता है न देव का, न गुरु का, साधु वर्ग के लिये अपने संयम निर्वाहार्थ रजोहरण आदि उपकरणों को गुरु द्रव्य कहां जाय तो शायद अनुचित नहीं होगा । साधु वर्ग की जरुरीयात, उपकरण, विहार, वैयावच्च आदि की पूर्ति करना, कराना जहां जैसी जरुरत हो तन,मन, धन से करना ग्रहस्थ का अपना कर्तव्य है, और मुनिराज द्वारा दिया गया 'धर्म लाभ' ग्रहस्थ के लिये तभी सार्थक है जबकि वह यथा शक्य कर्तव्य का पालन करें।
हजारीमल, 38/9, मीनशन बाजार, करनूल - 518001
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अंजन शलाका
श्री जैन श्वेताम्बर मूर्ति पूजक समाज में एक यह प्रथा है अनिवार्य विधी वह है "अंजन शलाका" बिना अंजन शलाका के प्रतिमा पूजनीय नहीं होती पूजी नहीं जा सकती यह दृढ़ मान्यता है और यथावत चालू है । इसके बारे में सोचा भी नहीं जाता कि यह मान्यता विधि जैन सिद्धांत से सहमत है या विपरित ।
1) भगवान महावीर स्वामी के निर्वाण बाद लगभग एक हजार वर्ष बाद आगम सूत्र लिखे गये है उस समय तक यह प्रथा "अंजन शलाका" विधि नहीं थी यदि यह प्रथा होती तो आगाम सूत्रों में विधि का विधान आदेश या निषेध किसी भी तरह का कोई न कोई उल्लेख होता, अतः यह निश्चित हो जाता है कि यह प्रथा (विधि) बाद में चालू हुई है ।
2) अंजन शलाका प्राण प्रतिष्ठा का उल्लेख निर्वाण कलिका, आचार दिनकर आदि ग्रंथों में आता है यह समय चैत्यवासियों के साम्राज्य का था। चैत्यवासियों ने कई नवीन क्रिया अनुष्ठान प्ररुपित किये, तद्नुसार ग्रंथ भी लिखे गये उन्हीं के अनुसार ये क्रियाये अंजन शलाका एवं प्राण प्रतिष्ठा आदि आज भी चालू है जो कि जैन आचारों से विरुद्ध है ।
3) "अंजन शलाका" अंजन याने आंखों में डालने का द्रव्य जैसे महिलाये अपने श्रृंगार के रूप में काजल का उपयोग करती है, शलाका याने जिसके द्वारा अंजन किया जाता है । यह क्रिया अर्थात प्रतिमा की अंजन शलाका जैन आचार्यों एवं मुनिराजों द्वारा की जाती है ।
4) अंजन शलाका करने का मुहरत चाहे किसी भी दिन, तिथि, वार का हो समय (टाइम) तो मध्यरात्रि याने रात के बारह बजे ही होता है रात होने से लाइट, रोशनी करना भी जरुरी हो जाता है ।
5) अंजन शलाका करने वाले आचार्य या मुनिराज को यह क्रिया करते वक्त सोने के आभूषण भी पहनना होता है तो हमें यहां यह सोचना है कि कंचन कामिनी के त्यागी को कंचन कामिनी के त्यागीओं द्वारा, रात के अंधेरे में, रोशनी के सहारे से ऐसी क्रिया करना क्या उचित हो सकता है क्या जैन साधू का आचार हो सकता है ?
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6) यह सर्वविदित है कि रात को आंखों में अंजन करना श्रृंगार करना, आभूषण पहनना आदि क्रियायें नव परिणित कामिनिये ही प्रायः करती है।
तीर्थंकर भगवान वीतराग है कंचन कामिनी के त्यागी है उनका अनुयायी साधु वर्ग भी कंचन कामिनी के त्यागी है यह सामान्य समझने की बात है कि जैन दर्शन के आचारों से कितना विपरित है।
साधुओं के लिये द्रव्य पूजा का विधान ही नहीं और कोई साधु द्रव्य पूजा करता ही नहीं फिर भी यहां सब भूला दिया जाता है।
दिगम्बर परम्परा में इस प्रकार की क्रियाएं करने के लिये विद्वान पंडित होते है। साधुओं द्वारा अंजन शलाका करने का निषेध है। .. 7) तत् संबंधी विभिन्न समय समय पर प्रश्न उपस्थित भी हुए है किन्तु रुढी परंपरा के कारण किसी ने छोड़ने का प्रयास ही नहीं किया । सेन प्रश्नावली :(अ) साधुनाम भाव पूजा कयिताऽस्ति प्रतिष्ठायां अंजन शलाका कारणे तु द्रव्य पूजा जायते तत्कथ मिति ? (ब) प्रतिष्ठायां प्रतिमाया नेत्रोनमील के अंजने मधु क्षिप्य से नवा इति ? (स) प्रतिष्ठा अधिकारे साधूनाम वासक्षेपा क्षराणि क्वसंति? यदि च संति तदा प्रतिष्ठावत प्रतिदिनं ते वासक्षेप पूजां कथं न कुर्वन्तिती (द) लब्धि प्रश्न के पेज नं. 193 भी ऐसा ही उल्लेख है।
8) प्रतिष्ठा विधि का एक ग्रंथ आचार दिनकर भी है जिसके अनुसार अमुक क्रिया करने बाद एक ऐसी क्रिया की जाती है कि प्रतिष्ठाचार्य मुनिराज क्रूरदृष्टि से भगवान की प्रतिमा को अंगुली दिखाये और रौद्र दृष्टि से प्रतिमा पर पानी छांटे । क्या यह आगम विरुद्ध बात नहीं है ? जिस प्रतिमा को भगवान मानते है पूजनीय मानते है उनको अंगुली दिखाना, पानी छांटना कितना अविवेकपूर्ण है, अविनयत है, हास्यापूर्ण है। और तीर्थंकर भगवान वीतराग है सर्वोपरि है शांत है, प्रशांत है, उनके सामने क्रुर दृष्टि करना, रोद्र भाव करना, वह कैसी क्रिया है जिनको पूज्य बुद्धि से, शांत चित्त से, विनम्रता से, वंदन, कीर्तन करना चाहिये जिसके
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बदले ऐसे क्रियाये करना, मखौल है यह तो एक ऐसी क्रिया है जिसका अनुकरण है कि किसी पुरुष या स्त्री को, भूत, भूतनि (डाकिण) लग जाने पर तांत्रिक लोग रौद्र दृष्टि कर पानी छांटकर भगाने की क्रिया करते है जो साक्षात् मिथ्यात्त्व की क्रिया है ।
निर्वाण कलिका के अनुसार मंदिर में होने वाली विधियों के अन्तर्गत प्रसाद पुरुष की भी एक विधि है । यह प्रायः सब मंदिरों में होती है मंदिर में मूलनायक प्रतिमा के ठीक ऊपर शिखर के आखिरी भाग में पुरुष की आकृति को याने प्रसाद पुरुष को गाड दिया जाता है। जैन शास्त्रों में एक कथा आती है कि मिट्टी पानी से पाडाओं की आकृति बनाकर मारा था जिसको हत्या का पाप लगा था तो हमें पुरुष हत्या का पाप नहीं लगेगा क्या ? ये सब विधिये अजैनों के यहां से अपनाई गई है । उदाहरणार्थ :जोधपुर के महाराज ने किला बनाते समय राजीया नाम का आदमी जीवित ही गाड़ दिया गया था। जैन कथानुयोग में अमर कुमार की कथा भी इसी के अनुरूप है । और आज भी कई एक प्रसंगों में ऐसी विधी के अनुरूप जानवरों की बलि देने की प्रथा है । यह सर्व विदित है कि जैन धार्मिक क्रियायों में ऐसी कोई भी क्रिया करना जैन धर्म के विरुद्ध है । अतः इन सभी तथ्यों पर गहराई से सोचे, विचारें और आराधना के वहां विराधना से बचे यहीं एक हार्दिक इच्छा । अहिंसा मय जैन धर्म के सिद्धांतो पर विचार करें ।
- हजारीमल
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जिन मंदिर निर्माण में जैन सिद्धांत
विशाललोचनदलं, प्रोद्यदन्ताशु केसरं ।
प्रातर्वीर जिनेन्द्रस्य, मुख पद्य पूनातु नः ।। स्व. पूज्य मुनिराज श्री हंस विजयजी की प्रेरणा से विभिन्न मंदिरों में प्रतिमा संबंधी व पूजाविधी संबंधी, मूलभूत सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए कई सुधार किये गये हैं। जैसे अरहंत भगवंत अर्थात् तीर्थंकर देव अठारह दोष रहित एवं बारह गुण सहित होते हैं अतः इसका पूरा ध्यान रखा गया हैं। अठारह दोष निम्न प्रकार से हैं ।
(1) दानांतराय (2) लाभांतराय (3) गोतांतराय (4) उपभोगांतराय (5) वीर्यातराय (6) हास्य (7) रति (8) अरित (9) भय (10) शोक (11) दुगंछा (12) सकाम (13) मिथ्यात्व (14) अज्ञान (15) निद्रा (16) अविरति (17) राग (18) द्वेष ।
अ 1. दानांतराय : अरहंत भागवंत निरंजन है कुछ दे सकते नहीं इसके लिये मंदिर में यक्ष-यक्षिणी की प्रतिमायें स्थापित कर पूजा करना बहुमान करना यह अरहंत भगवंत के दानांतराय को सुचित करता है अतः इस मंदिर में यक्ष-यक्षिणी की पूजा नहीं की जाती अरहंत भगवंत की ही पूजा की जाती है।
2. लाभांतराय : मंदिर के निर्माण के लिये व निभाव के खर्चे के लिये टीपकरना याने किसी के पास मांगना या पूजाभक्ति की नीलामी करना याने चढावे बोलना इस तरह से रुपये जमा करना लाभांतर का सूचक है क्योंकि जरूरत पड़ने पर उसी को नहीं मिलता जिसको लाभांतराय का उदय है । जब कि अरहंत भगवंत के लाभांतराय का क्षय हो चुका है अतः इसमें चढावा बोलने की या टीपमांडने की पद्धति नहीं रखी गई है।
3. भोगांतराय : मंदिर में अरहंत भगवंत की प्रतीमा को नित्यस्नान याने प्रक्षालन करना अनिवार्य है, भक्त की इच्छा, संजोग, अनुकुलता नहीं होने पर भी मजदूर याने नौकर द्वारा भी करवाना ही पड़े यह भगवान के भोग की सूचकता है जबकि अरहंत भगवंत के भोगांतराय का क्षय हो चुका है अतः इस मंदिर में नित्य स्नान कराने की अनिवार्यता नहीं रखी गई है। भक्त की इच्छा होने पर भक्त ही कर सकता है।
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4. उपभोगांतराय : इस मंदिर में अरहंत भगवंत की प्रतिमाओं के मुकट आदि दागीना चढाने का भी निषेध है क्योंकि अरहंत भगवंत के उपभोगांतराय का क्षय हो चुका है।
5. वीर्यातराय : शासन रक्षक हेतू मंदिर में अन्य देवी-देवता की मर्तीये स्थापित करना भगवान के वीर्यांत राय का सूचक है अतः इस मंदिर में ऐसी कोई भी किसी भी देवी-देवता की मूर्ती स्थापित नहीं की जाती जो कि वाहन के उपर सवार हो या हाथ में हथियार हो एवम् किसी भी देवी देवता को शासन रक्षक नहीं कहा जाता कोई भी देवी देवता सेवक रूप में विनय मुद्रा में ही रह सकता है।
6. हास्य : अरहंत भगवंत शालाका पुरुष है अतः इस मंदिर में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं या द्रष्य नहीं की, कोई एक अरहंत भगवंत को मूलनायक बना दिया जाय जिसको उचे आसान पर बिठाया जाय व उसके पास ही दूसरे अरहंत भगवंत को कुछ निचे आसन पर बिठाया जाय, लघुता जैसा द्रश्य दिखाया जाय ऐसा हास्य इस में नहीं किया गया । जिस में एक के सन्मान में 23 का अपमान है।
.. 7-8. रति-अरति : अरहंत भगवंत अकेले बैठे-बैठे कंटाली जाय, बेचेन हो जाय और उस कंटाले के दुःख से अरति उत्पन्न न हो इसके लिये दो चार अन्य अरहंत भगवंत की प्रतिमायें साथ में बीठा दी जाय ताकि अरति न होकर रति याने खुशी उत्पन्न हो जाय । अरहंत भगवंत के मोहनीय कर्म का सर्वथा क्षय हो जाने से रति-अरति उत्पन्न होने का प्रश्न ही नहीं अत: इस मंदिर में ऐसा कोई द्रश्य नहीं रखा गया कि एक अरहंत भगवंत की प्रतिमा के पास दूसरे अरहंत भगवंत की प्रतिमा साथ में हो, समुह रूप में हो।
9. भय : अरहंत भगवंत के मोहनीय कर्म क्षय हो जाने से भय भी खत्म हो चुका, अतः इस मंदिर में कोई भी कार्य पूजा प्रतिष्ठा आदि या मंदिर निर्माण आदि में किसी भी तरह मुहरत देखकर काम नहीं किया गया, नहीं किया जाता कारण भय हो तो मुहरत देखना पड़े भय हे नहीं तो मुहरत की भी जरूरत नहीं अतः इस में मुहरत देखने का विधान ही नहीं रखा गया।
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10. शोक : ग्रहस्थ के घर में या अन्य के घर में मृत्यु हो जाने से शोक के कारण अमूक दिन तक पूजा नहीं करना ऐसा नियम ही नहीं रखा गया कि मृत्युक्रिया में जाने वाले को अमूकर दिन पूजा नहीं करना ।
11. दुगंछा : ग्रहस्थ के घर स्त्री की प्रसुति हो जाने से घर में अन्य व्यक्तियों को दुगंछा याने अशुद्धि के कारण पूजा दर्शन के लिये अमूक दिन तक नहीं करना ऐसा भी कोई नियम नहीं रखा गया है।
12. सकाम : अरहंत भगवंत निष्कामी हैं अतः इन की कोई भी पूजाविधी में ऐसा नियम नहीं रखा गया हैं कि सौभाग्यवती स्त्री ही हो या कुमारिका ही हो यहां सधवा या विधवा का पूजा भक्ति में कोई पक्षपात नहीं रखा जाता है।
13. मिथ्यात्व : प्रतिष्ठा प्रसंग पर या विशेष पूजा विधी में नवग्रह दस दिग्पाल आदि कीसी अन्य देवी देवता की पूजा करने की कोई क्रिया करना निषेध रखा गया है।
14-15. अज्ञान-निद्रा : अरहंत भगवंत के दर्शनावरणीय का क्षय हो जाने से निद्रा आ सकती नहीं और केवलज्ञान हो जाने के कारण भूल जाने का कारण नहीं अतः यहां पर किसने प्रतिमा भराई किसने मंदिर बनाया ऐसा किसी तरह का लेख न प्रतिमा पर लगाया जाता है न मंदिर में कहीं पर।
16. अविरति : अरहंत भगवंत विरतिवंत है इसलिये इनकी प्रतिमा में भी अविरति जैसा द्रश्य जैसे कि विविध प्रकार की अंग रचना (आंगी) आभूषण आदि का दिखावा नहीं किया जाता, मात्र देवदुष्य वस्त्र ही दिखाया जा सकता हैं राज्य अवस्था का नहीं ।
___17-18. राग-द्वेष : अरहंत भगवंत वीतराग है रागद्वेष रहित है अतः इस मंदिर में प्रतिमाजी भराते वक्त या विराजमान करते वक्त यह नहीं देखा जाता कि अमूक भगवान से हमारा लेणीया हैं अन्य से लेणीया नहीं ऐसा कभी सोचा नहीं जाता, किया नहीं जाता, क्योंकि किसी भी तीर्थंकर को न किसी से राग है न द्वेष है, तो यह देखने की जरूरत ही क्यों ? विशेषकर चरम तीर्थपति श्री महावीर स्वामी की प्रतिमा ही विराजमान
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करने का जरूरी समझते है क्योंकि वर्तमान में शासनाधिपति भगवान श्री महावीर स्वामी है इन अठारह दोषो से बचने के बाद भी अन्य कोई भी दोष न आ जाय इसका पूरा ध्यान रखा जाता है।
ब 1. जैसे अरहंत भगवंत कंचन और कामिनी के त्यागी है अतः इनकी प्रतीमा विराजमान करते वक्त इनकी बैठक के नीचे कोई सोना चांदी के सिक्के नहीं रखे जाते । और इनकी बैठक के नीचे पवासन देवी या किसी भी देवी (स्त्रीवर्ग) का चित्र या प्रतिमा नहीं रखी जाती ।
2. कर्मशिला या प्रासाद पुरुष जैसी कोई भी हनन जैसी क्रिया नहीं की जाती।
3. यज्ञ जैसे हवन क्रिया एवम् मंत्रयंत्र का कोई भी आधार नहीं लिया जाता।
4. अरहंत भगवंत का शरीर समचतुर संस्थान से साथ ऊंचाई में 120 (एकसो बीस) आत्मांगुल प्रमाण होता है जिस से शिरोभाग विशेष ऊंचाई । वाला होने से प्रतिमा भराने में इसका पूरा ध्यान रखा गया है।
5. अरहंत भगवंत की प्रतिमायें विशेषकर केवल ज्ञान अवस्था की भराने का होने से केवली अवस्था में या अन्य किसी प्रसंगमें अरहंत भगवंत के लंगोट पहनने का प्रसंग नहीं आता अतः लंगोट का दिखावा नहीं रखा गया, बायें कंधे पर देवदुष्य वस्त्र रखने का विधान जरूर हैं। __6. केवली अवस्था में अरहंत भगवंत के सिर पर केश नहीं होने से केश के आकार जैसी गांठ नहीं बनाई गई है ___7. अरहंत भगवंत के शरीर का जैसा वर्ण होता है उनकी प्रतिमा में भी वही वर्ण रखा गया है। ___8. अंजन विधि आदि ऐसी कोई भी क्रिया विधि नहीं रखी गई जिसे रात्रि को ही करना पड़े।
9. ऐसा कोई भी सूत्र या स्तवन नहीं बोला जाता जिस में पौद्धगलिक सुख की इच्छा प्रदर्शित हो। ___ 10. पूजा प्रतिष्ठा आदि कोई भी क्रिया विधि में प्रणव, बीज, अक्षरों का
क्या यह सत्य है ? (41
....Eor Private &Personal use Only .
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उपयोग नहीं किया जाता ।
11. अरहंत प्रभू ने आंतरिक एवम् बाहरी शत्रुओ पर विजय प्राप्त करली है अतः विजयता का सूचक ध्वज पिछे नहीं रखते हुए आगे ही रखा गया है ।
उपरोक्त विषयों का ध्यान रखते हुए और केवल ज्ञान होने के बाद अरहंत भगवंत के बारह गुणों के अंतर्गत होने वाले आठ प्रतिहार्य होते है उनको अनिवार्य यथा स्थान रखा गया है ताकि अरहंत भगवंत की महानता, अद्वितियता, महान पुण्य विभुति की ठकुराई सर्वोपरिता आदि विशेषताओं का दिगदर्शन हो सके ।
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"प्रतिहार्यों का वर्णन"
1. अरहंत प्रभू की बैठक के ऊपर छटादार "अशोक वृक्ष" शोभायमान
2. भगवंत के दोनों और "पुष्प वृष्टि" करती ही दो देव प्रतिमायें स्थापित है
3. भगवंत के दोनों और "दिव्य ध्वनि" से सुशोभित दो देव प्रतिमायें स्थापित है।
4. भगवंत की पीठ तेजोमय “भामंडल" की कांती से प्रकाशमान है 5. भगवंत के दोनों और 'देवदुंदुभी' से दो देव प्रतिमायें सुसज्जित हैं
6. भगवंत के आसन के नीचे तेजस्वी सुंदर दो सिंह "सिंहासन" की पूर्ती करते खड़े है
7. भगवंतके दोनों तरफ बैठने की अवस्था से दुगुनी कांयवाले "चामरधारी" दो देव प्रतिमायें सुव्यवस्थित है ।
8. भगवान के मस्तक के ऊपर नील मणी युक्त "तीन छत्र" सुशोभित
एवम धर्मचक्र व धर्मध्वज अरहंत भगवंत की पुण्य विभूति में अभिवृद्धि करते दिखाई दे रहे है।
इस तरह अष्ट महाप्रात्याहार्य से सुशोभितजिनभूवन में देवाधिदेव अरहंत भगवंत की प्रतिकृति याने प्रतिमाजी विराजमान है।
उपरोक्त विवेचन, शांति से पढ़े देवाधीदेव की भक्ति के बहोने अज्ञानता वश हो रही आशातना से बचे यहीं शुभेच्छा सह ।
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"सम्यक्त्व"
सम्यक्त्व : देहातीत महापुरुष अर्थात जो आत्माये देह रहित होकर मोक्ष में चली गई है अथवा जिसने देहातीत होने की पूर्ण तैयारी करली है एवं देहातित होने की जो तन तोड़ मेहनत कर रहे है जैसे : (अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्व साधु) इनको पूज्य मानना इनके प्ररूपित सिद्धांत को सही मानना आत्मसात करना “सम्यक्त्व" है। ___ सम्यक्त्व मोहनीय : अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्व साधु इन पंच परमेष्टिओं के प्रभाव से पौद्गलिक सुख की प्राप्ति मानना एवं पौद्गलिक सुख की इच्छा से पूज्य मानना इसी हेतु धार्मिक क्रिया करना समकित मोहनीय है। (अतः त्याज्य है)
मिथ्यात्व :- देहासक्त आत्माओं को अर्थात जिनका लक्ष्य पौद्गलिक सुख की प्राप्ति करना होता है उनको धार्मिक बुद्धि से पूज्य मानना, देवरूप से या गुरू रूप से "मिथ्यात्व है आत्मा की दुर्गणा है (अतः गुणस्थान में मानना उचित नहीं लगता ।)
मिथ्यात्व मोहनीय :- उपरोक्त देहासक्त आत्माओं को पौद्गलिक सुख में सुखकी पूर्ती में इनका प्रभाव मानना इस हेतु इनके मान्य धार्मिक अनुष्ठान क्रिया करना “मिथ्यात्व मोहनीय है। मिश्र :- देहातीत, एवं देहासक्त दोनों को पूज्य मानना । समान मानना
आदि
मिश्र मोहनीय :- पौद्गलिक सुख की प्राप्ति में दोनों का प्रभाव मानना इस हेतू दोनों प्रकार की क्रियायें करना जैसे : अष्ठमी, पक्कखी का . एकासणा उपवास करना एवं संतोषी माता का भी व्रत करना । अर्थात थोड़ा सम्यक्त्व थोड़ा मिथ्याच्व इसको मिश्र गुणस्थान भी कहते है। अरहंतो महदेवो जाव जीवं सुसाहुणो गुरूणो जिणापन्नतं धम्म इह सम्मतं महे गहियं
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पूण्य - पाप की चतुर्भंगी
1. 'पुन्यानुबंधी पुण्य'
बंध : तीर्थंकर प्रभू की आज्ञा संपन्न एवं हेतू संपन्न धार्मिक अनुष्ठान क्रिया करना, और ऐसा करते हुए जिन आत्माओं ने पूर्णता प्राप्त करली है अप्रतिपाति गुण को धारण कर लिया है अर्थात मोक्ष को प्राप्त कर लिया है अथवा इसके लिये तनतोड़ मेहनत कर रहे है उनकी प्रशंसा करना अनुमोदन पुण्यानुबंधी पुण्य क्रे बंध का कारण है ।
उदय :- विविध पौद्गलिक सुख सामग्री प्राप्त होने पर भी वैराग्य को धारण कर संजम जीवन जीने की इच्छा करना वह पुन्यानुबंधी पुण्य का उदय है
उदीरणा :- पांच समिति, त्रण गुप्ति, वान सयंमी आत्मा दोष रहित भिक्षा की जो प्रवृत्ति करते है पुण्यानुबंधी पुण्य की "उदीरणा" है
सत्ता :- पुण्यानुबंधी पुण्य की बंध होने पर भी जब तक उदय में नहीं आता तब तक सत्ता में रहता है
(2) "पापा नु बंधी पुण्य"
बंध :- भौतिक अर्थात पौद्गलिक सुखों की इच्छाओं से धार्मिक अनुष्ठान, आराधना क्रिया करना 'पापानुबंधी पुण्य" की बंध होना है ।
उदय :- उदयावस्था में विविध प्रौद्गलिक सुख सामग्री प्राप्त होने पर आत्मभान भूला कर प्रौद्गलिक सुख में मस्त रहना 'उदय' है
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उदीरणा : आत्मिक सुख को सर्वथा भूलाकर मात्र प्रौद्गलिक सुख सामग्री प्राप्त करने का ही तनतोड़ उद्यम करना ।
सत्ता :- जब तक उदय में नहीं आता सत्ता में रहता है ।
(3) "पुण्यानुबंधी पाप"
बंध :- जो कोई आत्मा पौद्गलिक सुख की प्राप्ति का पुरुषार्थ करता है वैसा करते हुए जो भी षटकाय जीवों की विराधना होती है उसका मन में
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दुःख अनुभव करते हुए छोड़ने का इच्छा करता है एवं जिसने षटकाय जीवों की विराधना छोड़ दी है उन का गुण गान, अनुमोदन करता है "पुण्यानुबंधी पाप' का बंध होता है।
उदय :- पाप कर्म के कारण उदयावस्था में आने वाले दुःख में हाय तोबा नहीं करते हुए धर्म आराधना करना पुण्यानुबंधी पाप का उदय है
उदीरणा :- प्राप्त हुए पौद्गलिक सुख सामग्री का त्याग कर संयम जीवन जीना पुण्यानुबंधी पाप की उदीरणा है।
सत्ता :- जब तक उदय में न आवे तब तक सत्ता में रहता है।
(4) "पापानबंधी पाप" बंध :- ज्ञानी अने तारक भगवंत की आज्ञा विरूद्ध प्रवृत्ति करना अनुमोदन करना ‘पापानु बंधी पाप' का बंध होता है
उदय :- पाप कर्म के कारण किसी भी प्रकार के दुःख आने पर हाय तोबा करना आक्रंद करना, पापनुबंधी पाप का उदय है
उदीरणा :- आये हुए दुःख की प्रतिकार करने, मिटाने के लिये और पाप प्रवृत्ति करना पापानुबंधी पाप की उदीरणा है।
सत्ता :- जब तक उदय में नहीं आवे सत्ता में रहता है।
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"केवली आहार "
जैन समाज के श्वेतांबर, दिगम्बर मान्यताओं में एक मान्यता भेद यह भी है कि केवली भगवंत भी आहार करते है करना पड़ता है यह मान्यता श्वेतांबर है (दिगम्बर मान्यता आहार नहीं करने की है) एवं तीर्थंकर भगवंत को भी केवली पर्याय में आहार करना पड़ता है अतः करते है ।
1. श्वेतांबर मान्यता यह है कि केवलीयों को आहार करना ही पड़ता है अन्यथा हजारों वर्ष तक औदारिक शरीर कैसे रह सकता है ? और केवली भगवंत (तीर्थंकर भी) निर्वाण के समय छट्ट-अठम् आदि तपस्या करते है। तो हमें यह सोचना है कि केवल ज्ञान होने के बाद शरीर के टिकाने की आवश्यकता केवलीयों को होती है क्या ? तपस्या करने की भी जरूरत होती है क्या ? शरीर के टिकाने और तपस्या करने की जरूरत उसी को होती है जिसे अभी अपनी अपूर्णता है शरीर द्वारा कुछ प्राप्त करना है कमी को पूर्ण करना है जबकि केवली भगवंत को अब कोई आवश्यकता नहीं अपूर्णता नहीं शरीर रहे तो भी ठीक है उपदेश द्वारा दूसरों का उद्धार है शरीर नहीं रहे तो भी मोक्ष में जाना निश्चित है अतः मोक्ष में ही जाते है अतः कोई कारण नहीं कि वे शरीर के लिये आहार करे या शरीर संबंधी कोई प्रयास करें और निर्वाण के समय तपस्या करें। इन्हें न तो शरीर पर मूर्छा है न शरीर द्वारा कोई प्राप्त करना है अतः न आहार की आवश्यकता है न तपस्या करने की आवश्यकता ।
2. चार घाती कर्म जिसके क्षय होने पर ही केवल ज्ञान होता है यह मान्यता सबकी एक ही है श्वेतांबर मान्यता भी यही है । और सही है । चार घाती कर्मों में एक घाती कर्म अंतराय कर्म है जिसके पांच भेदों में एक भेद "दानांतराय" है जिसका भी क्षय हो जाता है तीर्थंकर भगवंत एवं सामान्य केवली भगवंत दिक्षा लेने के बाद केवल ज्ञान होने के पहले आहार का दान लेते है और उपदेश अर्थात ज्ञान दान देते है यह एक अपवाद जरूर है कि तीर्थंकर भगवंत छद्मस्थ अवस्था में उपदेश प्रायः नहीं देते सामान्य केवलीयों के लिये यह नियम नहीं । गौतम स्वामी ने छद्मस्थ अवस्था में धर्मो पदेश दिया है और उनके उपदेश द्वारा कई आत्माओं ने अपना कल्याण किया है यह सर्व विदित है अतः साधू
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मुनिराज उदाहरणार्थ गौतम स्वामी दीक्षा पर्याय में छद्मस्थ अवस्था में "दानांतराय" का उदय है क्योंकि दानोतराय का क्षय होने से ही केवल ज्ञान होता है। यहां दान को दो पहलुओं से सोचना है दान देना और दान लेना।
दान कभी एक हाथ से होता नहीं अर्थात् दान एक व्यक्ति एक तरफ से होता नहीं, हो सकता नहीं, दान लेने वाला भी चाहिये अतः दान तभी हो सकता है अन्यथा नहीं । हां त्याग हो सकता है। दान नहीं । जब तक दान लेने वाला न हो हम लाख प्रयत्न करें दान दे नहीं सकते । तो जो मुनिराज छद्मस्थ अवस्था में, दानांतराय के उदय अवस्था में आहार का दान लेते है और ज्ञान दान देते है वे ही मुनिराज केवल ज्ञान होने पर भी "आहार दान" लेते रहे तो छद्मस्थ अवस्था याने दानांतराय के उदय अवस्था में और केवल ज्ञान होने से “दानांतराय" के क्रय होने पर भी आहार दान लेते रहे लेना पड़े तो दानांतराय की उदय अवस्था में और दानांतराय के क्षय होने की अवस्था में स्नातसय के क्षय होने की अवस्था में दानांतराय संबंधी क्या अन्तर पड़ा ? "दानांतराय" क्षय होने से क्या प्राप्ति हई ? यह एक गहराइ से सोचने का विषय है। दानांतराय का क्षय होना ही दान लेने की आवश्यकता नहीं रहती यही दानांतराय के क्षय की विशेषता है। विशेषता हो सकती है।
3. आहार नहीं लेने से शरीर में कमजोरी आ जाय यह भी एक प्रश्न है। तो छद्मस्थ अवस्था में जहां वीर्यातराय का उदय है आहार नहीं लेने से शरीर में कमजोरी आ सकती है किन्तु जबकि वीर्यातराय के क्षय से ही केवल ज्ञान होता है तो वीर्यातराय के क्षय से भी कमजोरी आ जाय शरीर नहीं रहे तो वीर्यातराय के क्षय से क्या अन्तर पड़ा ? क्या विशेष प्राप्ति हुई ? वीर्यातराय के क्षय होने पर भी कमजोरी आ जाय या शरीर टिके नहीं तो वीर्यातराय संबंधी न तो कोई अन्तर पड़ा न कोई प्राप्ति हुई । अतः यही कारण है वीर्य अर्थात जो एक शक्ति है उसमें आने वाली बाधायें अर्थात अंतराय का क्षय हो जाने से कोई बाधा अंतराय आ न सकती यही वीर्यातराय के क्षय की विशेषता है महानता है । केवलीयों की आयुष्य निश्चित है उसमें एक समय का भी अन्तर पड़ता नहीं चाहें आहार करें या न करें। उदाहणार्थ : 48 ) क्या यह सत्य है ?
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4. भगवती सूत्र के शतक 20 उद्देश्य 10 में आयुष्य के सोपाक्रमी व निरूपाक्रमी के दो भेद बताये हो जिसमें निरपाक्रमी शरीर किस-किस का होता है । क्या विशेषता है? निरपक्रमी शरीर वाले का किसी तरह की उपक्रम अर्थात घात लगता नहीं अर्थात घात से आयु क्षय होता नहीं । केवल ज्ञानियों का शरीर भी निरूपाक्रमी ही होता है।
5. तत्वार्थ सत्र अ. गाथा. औपपातिक चरमदेहा उत्तम पुरुष असंख्यात वर्षायुषः अनपवर्तायुषः । उपरोक्त गाथा में भी चरम देही का आयुष्य अपवर्तनीय कहा गया है।
अतः ये स्पष्ट प्रमाण है इन महान व्यक्तियों के आयुष्य में कोई अन्तर पड़ता नहीं चाहे जितने घात लगे, कष्ट पड़े आयुष्य घटे नहीं ।
6. अगर केवलीयों को भूख हो तो आहार करने के बाद 4-6 घंटे बाद जैसे हर किसी व्यक्ति को भूख लग जाती है याने हमने शाम को भोजन किया है। तो रात को अथवा प्रातः भूख लग जाती है भूख लगते ही खाना मिल जाय ऐसा होता नहीं घंटा दो घंटे अथवा कुछ समय भूख की पूर्ती करने में लगता ही है तो जो केवली भगवंत आहार करें तो उनको भूख लगनी ही चाहिये और भूख लगने पर गौचरी लाकर आहार करें इस में कुछ समय तो लगता ही है इस समय के अंतराल में भूख सहन करनी ही पड़ती है तो इस समय के अंतर तक "भोगोतराय" सहन करना पड़ता है जबकि "अंतराय कर्म" के अंतर्गत भोगांतराय होने से भोगांतराय का भी क्षय हो चुका | भोगांतराय का क्षय होने पर भी "भोगांतराय" सहन करना पड़े यह कैसी विचित्रता है। सोचने की विषय है। 7. केवल ज्ञानीयों को भूख लगने पर गौचरी जाना पड़े आहार लाना पड़े करना पड़े तो अगर यह कार्य न करे तो क्या अरति होती है और करने पर रति । यदि अरति न हो तो जाने की आवश्यकता नहीं अगर जरूरत है तो पूर्ती होने पर रति भी हो सकती है जो सर्वथा अनुचित है।
8. केवल ज्ञान होने के बाद वेदनीय कर्म बाकी है किंतु सातावेदनीय असाता नहीं । यदि असाता वेदनीय बाकी रहता हो तो भगवान महावीर स्वामी को केवली अवस्था में तेजोलेश्या की जो अशाता हुई उसको
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आश्चर्य कारी घटनायाने अच्छेरा कहने की आवश्यकता ही क्या ? सामान्य बात हैकिन्तु ऐसी नहीं होने वाली घटना जब बनती है तब आश्चर्य कारी कही जाती है।
9. यह भी कहा जाता है कि केवली भगवंत बिना इच्छा के आहार करते है तो प्रश्न यह होता है कि केवली भगवंत अकेले भी होते है समुदाय में भी होते अकेले होने पर भूख लगने पर गौचरी जावे, आहार लावे, आहार अपने हाथ से करें यह सभी बिना इच्छा के संभव है क्या ? और आहार करें तो लघु शंका आदि निहार भी करना पड़े और निहार करे तो सफाई की भी आवश्यकता पड़ सकती है यह सभी झंझट केवल ज्ञानीयों के लिये संभव हो सकती है क्या ?
- छद्मस्थ अवस्था में भूख लगती है तब भूख पूरी करने की इच्छा होती है उस इच्छा को रोकने के लिये जो प्रयत्न करना पड़ता है वही तप है इच्छा को रोकना अर्थात तप करना यही इच्छा का क्षय करना है जहां इच्छा है वही तप भी है तप की आवश्यकता भी है। केवल ज्ञान होने के बाद इच्छा नहीं तो इच्छा का रोधन भी नहीं अर्थात तप भी नहीं ।
10. जहां तक मेरा अध्ययन है केवलज्ञान होने के बाद असाता वेदनीय कर्म बाकी नहीं रहता मात्र सातावेदनीय ही बाकी रहता है। उदाहणार्थ : कथानुयोग में जहां भी केवलीयों का केवलज्ञान होने का वर्णन है वहां पर असाता अवस्था में केवलज्ञान होने पर अंतर्मुहर्त के अंदर या तो केवली निर्वाण प्राप्त करते है अन्यथा देवता आकर असाता का निवारण कर देते है अंतर्मुहर्त से अधिक समय तक असाता रही हो ऐसा प्रसंग शायद मिलना कठिन है।
अत: विद्वान वर्ग से निवेदन है कि सभी तथ्यों पर गहराई से सोचे विचार करें और जो भी उचित अनुचित लगे पत्र द्वारा मालूम करें यही एक हार्दिक विनंति है।
- हजारीमल जैन
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"स्त्री मोक्ष"
जैन श्वेतांबर मान्यतानुसार स्त्री लिंग से भी मुक्ति हो सकती है जबकि दिगम्बर मान्यतानुसार स्त्री लिंग से मुक्ति नहीं हो सकती, इसका खास कारण बताते है कि स्त्री सातवी नरक में नहीं जा सकती और इसका कारण स्त्री की इतनी कमजोरी है इसी कमजोरी अर्थात शक्ति की कमी के कारण स्त्री मोक्ष में नहीं जा सकती श्वेतांबर व दिगम्बर दोनों की मान्यता स्त्री सातवी नर्क में नहीं जाने की ही है। परंतु मोक्ष में जाने की लिये (स्त्री- वेद बाधक हो सकता है स्त्री लिंग नहीं, कारण यह है कि :पुरुष हो या स्त्री मोहनीय कर्म का सर्वथा क्षय करने पर ही केवल ज्ञान हो सकता है और केवल ज्ञान होने के बाद ही मोक्ष मिल सकता है।
तत्त्वार्थसूत्र नवम अध्याय में :- एकादश जिने ।। बादर संपराय सर्वे बादर गुणस्थान याने नवम गुणास्थान तक सभी परिसह है यानि वेद परिसह भी है वह क्रमशः बाद में कम होते शांत हो जाते है और नष्ट हो जाते है। दसम गुणस्थान पार कर अगीयार में गुणस्थान में आत्मा जब आ जाती है तब ग्यारवा गुणस्थान उपशांत मोह का है वहां पर सभी उपशम हो जाते है याने शांत हो जाते है ऐसा होने से कोई भी परिसह सता नहीं सकता, बाधा कारक नहीं हो सकता । एवं नवमगुणस्थान तक आने वाली आत्मा का लक्ष्य एक मात्र मोक्ष का ही होता है। प्रौद्रलिक सुख का लक्ष्य लेश मात्र नहीं रहता।
अतः यहां पर कोई भी वेद बाधा कारक नहीं होता।
जबकि ठीक इसके विपरित नरक में जाने के लिये जो पुरुषार्थ परिश्रम चाहिये वही सभी कषाय जन्य होने से व पौद्रलिक इच्छा पूर्ती के लिये होने से वेद का उदय होने के कारण उसकी पूर्ती के लिये जो परिश्रम करना होता है, स्त्री के लिये पुरुष से लघुता प्रस्तुत करने पर ही पूर्ती हो सकती है। इसी लघुता के कारण मान कषाय की कमी रह जाती है
अतः कषाय की कमी के कारण आखरी नरक स्थान जो कि सातवी नरक है नहीं जा सकती । यह हक ठोस तार्किक दृष्टांत है इसमें न तो श्वतांबर शास्त्र के प्रमाण की जरूरत है न दिगंबर शास्त्र प्रमाण की । विशेष केवली गमय ।
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विशेष :- दिगम्बर परम्परा के आधार पर अभ्यंतर एवं बहिरंग के सम्पूर्ण परिगृह का त्याग करने पर ही शुद्धोपयोग होता है अर्थात दिगंबर मान्यताएं से तो नग्नता से ही मोक्ष संभव है । श्वेताम्बर आम्नायु के अनुसार मोहनीय कर्म को नाश करने वाला जीव मोक्ष का अधिकारी है चाहे वह स्त्री हो या पुरुष ।
तत्वार्थ सूत्र में तो मोह के क्षय से ही केवल ज्ञान केवल दर्शन की प्राप्ति मानी है।
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"आत्मा का अनादिपन"
आज जैन सिद्धांत को मानने वाले मुख्य तीन संप्रदाय है श्वेतांबर, दिगम्बर, स्थानकवासी इन तीनों की एक ही मान्यता है कि कर्म जीव के साथ अनादि काल से लगे हुए है। अतः इस विषय पर किसी का लक्ष्य ही नहीं जाना स्वभाविक है। लेकिन तात्विक एवं सैद्धांतिक दृष्टि की गहराई में जाने से तथ्य कुछ और ही निकलता है।
जीव के साथ कर्म अनादि है इसके लिये सोने की खान का उदाहरण दिया जाता है यह उदाहरण कहां तक तर्क की कसौटी पर टिकता है पहले इसी को सोचें । जैन दर्शन की सैद्धांतिक मान्यता है कि दो या दो से अधिक परमाणु मिलने पर स्कंध बनता है अगर तीन परमाणुओं के स्कंध के दो टुकड़े किये जाय तो एक भाग में एक परमाणु आयगा और दूसरे भाग में दो परमाणु आयेंगे, मगर किसी भी भाग में डेढ़ परमाणु नहीं आयगा नहीं आ सकता इस अविभाज्य भाग को ही अणु या परमाणु कहते है और इन परमाणुओं के मिलने से जो स्कंध बनता है वह अस्थिर है अर्थात स्कंध टुटते रहता है और जुड़ते रहता है, स्कंध के टुटने पर उसमें से टुटे पड़े हुए परमाणु किसी भी अन्य स्कंध में मिल सकते है मिल भी जाते है । अब प्रश्न यहीं होता है कि जब एक परमाणु का दूसरे परमाणु के साथ मिलकर रहना अस्थिर है तो सोने का परमाणु व मिट्टी का परमाणु भी जिसका अपना अपना अस्तित्व अलग अलग है आज जो एक सोने का परमाणु एक मिट्टी के परमाणु के साथ है वहीं सोने का परमाणु कल किसी दूसरी मिट्टी के परमाणु के साथ रहेगा क्योंकि परमाणु सोने का हो या मिट्टी का मिलते रहते है और टुटते रहते है फिर भी अपना- अपना अस्तित्व अलग-अलग कायम रहता है क्योंकि द्रव्य की अपेक्षा से परमाणु शाश्वत है और पर्याय की अपेक्षा से जो कि स्कंध है अ-शाश्वत है । अ-अनादि है। सोने का परमाणु मिट्टी के परमाणुओं के साथ मिलकर जब स्कंध बनता है तब हमें इस मिट्टी में सोने का अंश दिखाई देता है हम अपनी जरूरत अनुसार उसे अग्नि आदि प्रयोग द्वारा उस सोने के परमाणुओं को मिट्टी के परमाणुओं से अलग करते है तब सोने के परमाणुओं से जो स्कंध बनता है तब हमें वह केवल सोना ही दिखाई देता है। सुक्ष्म बुद्धि से सोने का परमाणु सदा अलग ही था और
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अब जिस मिट्टी के परमाणुओं से सोने के पस्मामुओं से सोने के परमाणुओं को अलग किया है यह उनका साथीपना भी अनादि काल से न ही था, क्योंकि परमाणुओं का मिलना याने स्कंध अस्थिर है अ-अनादि है हमारे इस अग्नि प्रयोग के पहले भी सोने का परमाणु अलग भी था फिर मिला अगर आज उसे अलग नहीं भी करते तो वह कभी न कभी भूकंप आदि से अलग हो सकता था कई बार अलग हुआ भी है वमिलाभी है अपनी शक्ति द्वारा अलग किया परमाणु फिर किसी भी अणु के साथ मिल सकता है चाहे वह मिट्टी का हो या अन्य धातू का।
अतः सोना मिट्टी के साथ अनादि काल से है यह मान्यता परमाणु सिद्धांत पर टिकती नहीं और परमाणुओं के बिना कोई स्कंध बनता नहीं चाहे मिट्टी का हो या सोने का 1. भगवती सूत्र के शतक 14 उद्देशक 4 में परमाणु संबंधी वर्णन है। 2. श्रमण भगवान महावीर नामक पुस्तक के पृष्ट नंबर 192 में प्रन्यासजी श्री कल्याण विजयजी लिखते है कि दो, तीन, चार और अधिक परमाणु . मिल कर जो स्कंध बनता है वह स्कंध अस्थिर है इसमें हानि वृद्धि होती रहती है ठीक इसी तरह आत्मा भी अपना अस्तित्व अनादि काल से टिकाए हुए है और जब वह कोई भी क्रिया करने योग्य होता है तब ही वह क्रिया कर सकता है और जब क्रिया शुरू होती है तब कर्म आना और मिलना शुरू होता। 3. दूसरा उदाहरण दिया जाता है कि मिथ्यात्व अविरति प्रमाद कषाय योग आदि के कारणों से आत्मा नित्य कर्म बांधता है लेकिन ये सब कारण बंध के है। आश्रव के नहीं पहले कर्मों का आश्रव होता है और बाद में बंध । बंध में ये जरूर सहाभूत है देखिये : तत्वार्थसूत्र की गाथा : अध्याय छ:
काय वाङ मनः कर्म योग: स आश्रवः कर्मों के आश्रव के लिये मन, वचन और काया की प्रथम आवश्यकता है । अनादि काल से आत्मा जो कि अव्यवहार राशी में है, मन, वचन से रहित है और काय भी नहीं है या नहीं वत है। जब मन नहीं, वचन, नहीं, और काया भी नहीं तो कर्मों का आना याने आश्रव हो भी नहीं सकता जैसा कि ऊपर तत्वार्थ सूत्र में दर्शाया गया है। अतः अनादि काल से आत्मा को कर्म लगे हुए है यह कैसे 54) क्या यह सत्य है ?
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माना जाय । अव्यवहार राशी में आत्मा के मन, वचन, काय नहीं जिसके प्रमाण निम्न प्रकार है।
4. पंचम अंग भगवती सूत्र ना ग्यारवा शतक ना दशमा उद्देशा में निगोद नो विचार छे तेज कहे छे पुष्प 4 श्री प्रकरण पुष्प माला, जेमां परमाणु खंड छत्तीसी, पुदगल छत्तीसी, अने निगोद छत्तीसी ऐन्नणो प्रकरणों आवेल छे भाषांतर कर्त्ता : मुनिराज श्री देव विजयजीगणी वीर संवंत 2443 प्रसिद्ध कर्ताः आत्मानंद जैन सभा, भावनगर पेज नं. 77 बादर निगोदा हि निराधार न संभवति ततः पृथ्वीयादिष्वेन । स्वास्थाने सु स्वरूपो भवन्ति न सूक्ष्म निगोद वत्सर्वत्र ।। इत्यतोयत्र क्र्वाचते बादर निगोदादयो भवन्ति तदुत्कृष्ट पदं तात्विक मिति भावः भाषांतर :- बादर निगोदो निराधार रहे नहीं पृथ्वी आदि ने विषेज रहे छ। सूक्ष्म निगोद नी माफक सर्वत्रनथी माटे ज्यां ते बादर निगोदादि होय त्यांज तात्विक उत्कृष्ट पद जाणवु ।। निष्कर्ष :- उपरोक्त प्रमाणों से यह मालूम होता है कि बादर निगोद निराधार नहीं सर्वत्र भी नहीं । पृथ्वी काय आदि से आधारित है । अतः सूक्ष्म निगोद सर्वत्र है निराधार है पृथ्वी काय आदि से आधारित नहीं।
अतः यह स्पष्ट हो जाता है कि सूक्ष्म निगोद ही अव्यवहार राशी है अन्य नहीं । यहां पर अव्यवहार राशी की अलग व्याख्या ही नहीं है। "सूक्ष्म निगोद" सर्वत्र होने से सर्व व्यापक होने के कारण पृथ्वी आदि में है न कि पृथ्वी आदि का आधार लेकर याने किसी भी शरीर के साथ नहीं 5. प्रसिद्ध इतिहास वेत्ता पं. श्री कल्याण विजयजी द्वारा लिखित "श्रमण भगवान महावीर" की पुस्तक में लिखते है कि भगवान महावीर को गणघर गौतम स्वामी पूछते है कि सूक्ष्म से क्या तात्पर्य है उत्तर में भगवान फरमाते है कि सूक्ष्म अर्थात किसी भी इन्द्रिय द्वारा न जाना जा सके वह सूक्ष्म । पेज नंबर 44. 6. मुनि श्री हेमचन्द विजयजी द्वारा लिखीत पुस्तक प्रश्नावली के पेज नं. अगीयार प्रश्न नंबर दो में सूक्ष्म निगोद व अव्यवहार राशी को एक ही कहा है।
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7. आचार्य श्री रवीचन्द्र सूरीजी द्वारा कल्याण मासिक के अंक संवत 1981 में समाधान हैकि अव्यवहार राशी के जीवों की व्यवहार राशी के जीवों द्वारा हिंसा या कोई भी विराधना नहीं होती नहीं हो सकती।
उपरोक्त प्रमाणों से निष्कर्ष निकलता है कि सूक्ष्म निगोद वाले अर्थात अव्यवहार राशी के जीवों के कोई भी शरीर नहीं है भगवती सूत्र के आधार से तो शरीर है ही नहीं । कदाचित सूक्ष्म शब्द से कुछ अंश माना जाय तो वह इतना सूक्ष्म है कि उसके द्वारा किसी की भी विराधना हो सकती नहीं और उसकी भी अन्य द्वारा विराधना होती नहीं और ऐसा संभव भी नहीं। __ कोई भी जीव अव्यवहार राशी से निकलकर व्यवहार राशी में आता है अर्थात अनादि काल से आत्मा अव्यवहार राशी में था, जिसे सूक्ष्म निगोद भी कहा जाता है जिसके मन नहीं होने से संकल्प, विकल्प, सोच विचार नहीं कर सकता । वचन नहीं होने से बोल नहीं सकता, काया नहीं होने से किसी का कुछ कर नहीं सकता जैसा कि ऊपर तत्वार्थ सूत्र में दर्शाया गया है।
8. कर्म ग्रंथ प्रथम गाथा नंबर 54, 57, 61 में चार घाती कर्म के बंध के जो कारण बताये है वह अव्यवहार राशी याने सूक्ष्म निगोद के जीवों के पास ये कारण करने के साधन ही नहीं है । 9. "क्रिया ओ कर्म" परिणमे बंध यह वाक्य जग जाहिर है इससे भी यही फलित होता है कि कोई भी क्रिया करें तभी कर्मों का आना और बंधना शुरू होता है। क्रिया करने के लिये मन, वचन और काय की आवश्यकता है कम से कम काय तो ऐसी चाहिये कि वह कुछ कर सके जब कि सूक्ष्म निगोद के जीवों के पास वह भी नहीं है। 10. वंदिता सूत्र की गाथा : एवं अट्ठविंह कम्मं, राग दोस समज्जिअं । आलोअंतो अनिंदंतो, खिप्पं हणइ सु सावओ । अर्थः इस तरह राग द्वेष द्वारा उपार्जित कर्म आलोयणा व निंदा द्वारा सु श्रावक खत्म कर देता है। इस से यह ध्वनित होता है कि कर्म राग द्वेष द्वारा ही उपार्जित होता है और राग होने का कारण किसी वस्तु का पास में होना वस्तु आत्मा के पास हो या उसे दिखाई दे, व वस्तु से उपलब्ध सुख का ज्ञान हो तो ही उस पर राग उत्पन्न होता है और राग होने पर ही उस वस्तु के किसी 56) क्या यह सत्य है ?
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द्वारा छिनने पर या हानि पहुंचाने पर या प्राप्त नहीं होने पर द्वेष उत्पन्न होता है तभी कर्मों का आना प्रारंभ होता है । सूक्ष्म निगोद अर्थात अव्यवहार राशी के जीवों के पास कोई भी वस्तु ही नहीं है कोई भी वस्तु को देखने या जानने की साधना शक्ति भी नहीं है ताकि राग उत्पन्न हो या उसको हानि पहुंचाने वाले पर द्वेष उत्पन्न हो अत राग द्वेष नहीं होने कारण से कर्मों का आना भी नहीं हो सकता । अतः उपरोक्त प्रमाण से यह प्रमाणित होता है कि सूक्ष्म निगोद अर्थात अव्यवहार राशी में जहां जीव अनादि काल से पड़ा हुआ था वहां कर्म रहित था । वहीं आत्मा जब व्यवहार राशी में आता है तब उसके पास शरीर हो जाता है और शरीर द्वारा वह कुछ कर सकता है और अनिच्छा से भी अपना शरीर अन्य प्राणियों द्वारा उपयोग में लाया जाता है और यहीं से व्यवहार चालू होता है अतः व्यवहार राशी कहलाता है यहीं से कर्मों का आना प्रारंभ हो सकता है क्योंकि कर्म करने के लिए ये अब उसके पास है कुछ है | अतः अनादि काल से आत्मा कर्म रहित था और जब व्यवहार राशी में आया तब कर्मो का आना शुरू हुआ । अतः कर्म आदि है अनादि नहीं।
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"आत्मा का विकास"
आत्मा अनादिकाल से कर्म रहित थी, जहांकि वह अव्यवहार राशी में थी । कर्म रहित होने पर भी दुःखमय था । आत्मा की यह अवस्था अविकसित दशा है । आत्म द्रव्य एक ऐसा द्रव्य है जो कि परिणामी स्वभाव का है उसे अन्य द्रव्य में परिणीत होने की आवश्यकता है। देखिये नव तत्व की गाथा : “परिणाम जीव मुत्तं याने जीव और पुदगल परिणामी द्रव्य है और इसके लिए सबसे पहले पुदगलास्ति परिणाम काय है की आवश्यकता है पुदगल की सहायता के बिना आत्मा कुछ भी करने में असमर्थ है। चरमशरीरी आत्मा के लिए भी उत्कृष्ट पुद्गल बृज ऋषभ नाराच संघयण की आवश्यकता है देखिये तत्त्वार्थ सूत्र की गाथा नंबर 27 अध्याय नवम उत्तम संहनन स्येकाग्र चिन्ता "निरोधो ध्यानम्"
किसी भी शहर में दो व्यक्ति प्रथम जाते है तो पहले ठहरने के लिए जगह की आवश्यकता होती है अब जिस व्यक्ति के पास पैसे है वह व्यक्ति तो किसी भी जगह होटल आदि में ठहरकर सुख सुविधा प्राप्त कर सकता है जबकि अन्य व्यक्ति जिसके पास पैसे नहीं है भटकना पड़ता है उसे कोई ठहरने नहीं देता । जब वही व्यक्ति अपने शरीर द्वारा दूसरों को उस शहर में रहे हुए व्यक्तियों को सेवा अर्पित करता है तब कुछ प्राप्त करता
अव्यवहार राशी के जीवों के पास कुछ भी नहीं होने से अर्थात् शरीर नहीं होने से सर्वथा खाली है अत: उसे भटकते रहना पड़ता है। एक क्षण भी उसे ठहरने के लिए कोई स्थान नहीं है याने शरीर नहीं है। इस तरह भटकते रहने का दुःख इतना है कि संसार के अन्य दुःख इस दुःख के आगे नगण्य है। इस भटकते रहने के दुःख को सिद्धांत में "श्वासो श्वास" में साढे सत्रह हैं भव करने जैसे दुःख का वर्णन है अतः अव्यवहार राशी के जीवों को भटकते रहने का महान दुःख है वह भी अनादि काल से ।
अव्यवहार राशी के जीवों की संख्या इतनी अधिक है कि जितने पुद्गल परमाणु है वे सब भरे पड़े है ऐसी जगह याने पुद्गल नहीं है कि एक भी जीव इसमें आकर रह सके इसलिए जब इन पुद्गलास्तिकाय में से एक जीव मोक्ष में जाता है तब अव्यवहार राशी के एक जीव को
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व्यवहार राशी में आने का सौभाग्य प्राप्त होता है अतः उस अव्यवहार राशी के जीव के लिए सिद्ध हो गये हुए उस जीव का महान उपकार है जिसने एक जीव को रहने का स्थान दिया और जब तक वह जीव भी सिद्ध में नहीं जाता तब तक सिद्ध भगवंत का सदा ऋणी है।
इस लोकाकाश में सूक्ष्म निगोद अव्यवहार राशी के जीव भटकते रहते है। इन भटकते हुए जीवों में से जब एक जीव जिस जगह से मोक्ष में जाता है उस जगह के पास में रहे हुए एक जीव का नंबर व्यवहार राशी में आने का लग जाता है। व्यवहारं राशी में आने वाले जीव का उसका अपना इसमें कोई पुरूषार्थ नहीं होता यह एक भवितव्यता ही है। जिस वक्त एक जीव मोक्ष में जाता है उस वक्त उस जगह में भटकते हुए अव्यवहार राशी के जिस एक जीव का आना होता है वह लाटरी जैसा है जिसे नदीघोल पाषाण की उपमा दी जाती है।
जैसे कोई पत्थर नदी के पानी के बहाव से टकराते-टकराते गोल हो । जाता है उसमें उस पत्थर का अपना कोई पुरूषार्थ नहीं होता ठीक उसी । तरह अव्यवहार राशी के जीव को व्यवहार राशी में आने के लिए अपना खुद का व्यवहार राशी में आता है तब वह सर्वप्रथम पृथ्वीकाय में उत्पन्न होता है"सर्वप्रथम पृथ्वीकाय में उत्पन्न होना और उसका जिस रिती से आगे बढ़ना होता है उसमें भी कारण आवश्यक है कि "जननी जन्म : भूमीश्च"
इस संसार में से मोक्ष में जाने के लिए मनुष्य भव की प्रथम जरूरत है और मनुष्य भव के शरीर के लिए प्रथम पृथ्वी चाहिए । अतः अव्यवहार राशी का जीव सर्व प्रथम पृथ्वीकाय में उत्पन्न होता है और लोककाश में रहे हुए पृथ्वी काय के सभी पुद्गलों में अपना जीव परिवर्तन करते रहता है। ___ अपना पृथ्वीकाय का शरीर व्यवहार राशी के अन्य जीवों द्वारा उपयोग में लेने से यह आत्मा पृथ्वीकाय के पुद्गल परमाणुओं का लेंणदार बन जाता है। यह काल अवधि इतनी लंबी होती है कि जिसे शास्त्रीय भाषा में पुद्गल परावर्तन काल कहते है।
पृथ्वीकाय के सभी पुद्गलों द्वारा सेवा अर्पित किये जाने से अब वह पृथ्वी पर ठहरने का हकदार बन जाता है यह क्रम पूरा होने के बाद जीव
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अपकाय में आता है जिस तरह पृथ्वीकाय में सभी परमाणुओं से अपनी सेवा अर्पित की है इसी तरह अपकाय के परमाणुओं को भी अपनी आत्मा द्वारा परिणित कर सेवा अर्पित करनी पड़ती है यहां पर भी पुद्गल परावर्तनकाल जितना समय लग जाता है।
इसके बाद तेउकाय में आना पड़ता है और उसके बाद वाउकाय में आना पड़ता है और उसके बाद वनस्पति काय में आना पड़ता है हर एक में पुद्गल परावर्तन काल समय लग जाता है वनस्पति काय बाद मनुष्यभव प्राप्त होता है। मनुष्यभव के औदारिक शरीर के लिए इन पांचों की ही आवश्यकता वे इन्द्रिय तेइन्द्रिय चउरिन्द्रिय की आवश्यकता ही । इसके लिए जैन शास्त्र मे मारूदेवी माता का उल्लेख ठोस प्रमाण है। मारूदेवी माता का जीव वनस्पति काय से सीधा मनुष्यभव में आता है। मनुष्यभव के ओदारिक शरीर के लिए इन पांचों की ही आवश्यकता वे इन्द्रिय ते= इन्द्रिय चउरिन्द्रिय आदि के जीवों के शरीर की सहायता की आवश्यकता नहीं होती । अतः इन पांचोंकाय के द्वारा सेवा अर्पित किये जाने के कारण अब यह पांचों सुगमता से उपलब्ध हो जाते है इन पांचोंकाय में जीव भटकते हुए भी कहीं पर भी राग द्वेष का निमित्त नहीं मिला । अतः अब तक यह जीव राग द्वेष रहित था । सिर्फ इसने अपने शरीर द्वारा दूसरों को सेवा अर्पित की है वह भी अकाम वृति से।
इतना कष्ट इतनी लंबी अवधि तक सहन करने से मनुष्य भव मिलता है इसलिए मनुष्य भव महादुर्लभ कहा जाता है यहां पर मनुष्य भव प्राप्त होने के बाद इस मनुष्य भव की यह विशेषता है कि यहां मन है, वचन है, काय है अतः सोच सकता है, बोल सकता है व इच्छानुसार करने की कोशिश कर सकता है यहां पर सोचने की शक्ति होने से अपने योग्य अपने पास वस्तु होने से या दसूरे के पास दिखाई देने से उस वस्तु पर राग उत्पन्न होता है और उस वस्तु का किसी अन्य द्वारा छिनने पर या प्राप्त करने में बाधा डालने पर द्वेष उत्पन्न होता है। इससे कर्मों का आश्रव शुरू होता है और फिर बंध और यहीं से चौरासी लाख योनी की भव भ्रमण चालू हो जाता है।
मारू देवी माता की आत्मा जैसे किसी को शुरू में ही तीर्थंकर भगवंत का संपर्क हो जाय और उनसे गाढ़ अनुबंध हो जाय तो चौरासी लाख
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योनी में भटकने की जरूरत नहीं पड़ती और मोक्ष मिल जाता है ऐसा क्वचित ही होता है। सामान्यता मनुष्य के भव से कर्मों का उपार्जन करते हुए भटकना पड़ता है और जब तीर्थंकर भगवंत का शासन मिल जाय, उन पर श्रद्धा हो जाय तो भव भ्रमण की एक सीमा हो जाती है।
इन चौरासी लाख जीव योनी में भटकते हुए जीवों में से कईओं को कभी-कभी पृथ्वीकाय आदि में जाना भी पड़ता है तो इस पृथ्वीकाय आदि में वह ज्यादा से ज्यादा सित्तर कोड़ा-कोड़ी सागरोपम तक ही रहना पड़ता है क्योंकि आठों कर्मों में मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति सित्तर कोड़ा-कोड़ी सागरोपम ही है और इस अकेन्द्रिय पने में अन्य कर्म करने की सजा भुगतना है अर्थात मोहनीय कर्म द्वारा अधिकांश पुण्य समाप्त कर देने से जाना पड़ता है अत: यहां जीव को पुदगल परावर्तन काल जितनी अवधि की आवश्यकता नहीं रहती।
प्रश्न : जो जीव व्यवहार राशी में से पृथ्वीकाय आदि में गया है वह नये कर्म बांधता नहीं और पुराने नष्ट करता है तो मोक्ष में क्यों नहीं जाता?
उत्तर :- कर्म या क्रिया करना इसके दो पहलू है देखिये तत्वार्थ सूत्र अध्याय छ: गाथा 2-3-4
सः आश्रवः शुभः पुण्यस्थ, अशुभ: पास्यः मोहनीय कर्म द्वारा पुण्य खत्म कर देने के कारण आत्मा को पृथ्वीकाय आदि में याने एकेन्द्रिय में जाना पड़ता है यहां पर फिर अपने द्वारा सेवा अर्पित होने से लेणदार बनता है याने कुछ पुण्य प्राप्त करता है। जब तक आत्मा शुभकर्म करके पुण्य प्राप्त नहीं करता तब तक मोक्ष में नहीं जा सकता मोक्ष में जाने के लिए एकांत पुण्य की जरूरत है अगर उसमें अंश मात्र भी पाप रह जाने पर मोक्ष में जाने को बाधा रूप होता है। पुण्य भी पूरा चाहिए अगर पुण्य की मात्रा भी थोड़ी कम हो तो अटक जाना पड़ता है और अधूरे पुण्य को पूरा करने पर ही मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है।
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पुण्य से मोक्ष ?
प्रचलित जैन मान्यतानुसार पाप और पुण्य दोनों के क्षय से ही मोक्ष मिलता है पाप का क्षय तो समझ में आ सकता है किन्तु मोक्ष के लिए पुण्य का भी क्षय करना पड़े यह असंभव मालूम होता है ।
1. भगवती सूत्र शतक 14 उद्देश्य 7 में वर्णन है कि आत्मा उपशम श्रेणी तक जाकर वहां पर आयु क्षय हो जाय तो सर्वार्थ सिद्ध विमान में उत्पन्न होना पड़ता है अगर उन महान आत्मा के इससे पहले जो कुछ किया है उससे अधिक छट्ठ तप और हो जाता, अथवा यहां सात लव (पांच मिनिट लगभग) आयुष्य और ज्यादा होता तो मोक्ष में चले जाते, किन्तु दोनों को कमी के कारण यह नहीं हो सका ।
यहां हमें यही सोचना है कि जब आत्मा जिस संयम व तप के बल से उपशम श्रेणी तक पहुंची है और वहां संयम व तप की कुछ कमी के कारण मोक्ष में नहीं जा सकी और सर्वार्थ सिद्ध विमान के देवलोक में जाना पड़ा यह एक सर्वोत्कृष्ट देवलोक का देवविमान है जो सिद्धशिला से कुछ नीचे है और तिर्छा लोक से बहुत ऊपर है जाने के लिए पुण्य की आवश्यकता है बिना पुण्य के देवलोक जा नहीं सकते तो सर्वार्थ सिद्ध विमान से भी ऊपर जाने के लिए और अधिक पुण्य का आवश्यक होना स्वाभाविक है यहां पुण्यक्षय का प्रश्न ही नहीं होता उल्लेख भी नहीं ।
2. दशवैकालिक सूत्र अध्याय नवम् उद्देश्य चार गाथा सात
जाइ मरणाओ मुच्चइ इत्थं थंच चोइ सव्वसो सिद्धेवा हवइ सासण देवेवा अप्पर से महिद्वओ ।
अन्वयार्थ :- उपरोक्त गुणों को इस गाथा के पहले के गाथाओं में गुणों का वर्णन है धारण करने वाला मुनि नरकादिपर्याओं को सर्वथाक्षय कर देता है अर्थात नरकादि गति में जा नहीं सकता किन्तु जन्म मरण के चक्कर से छुट जाता है तथा शाश्वत सिद्ध हो जाता है "वा अप्पर अ" यदि कुछ कमी रह जाती है तो वह आत्मा महा ऋद्धिशाली ऐसा अनुत्तर विमान वासी देव होता है अतः इसका भी तात्पर्य यही निकलता है कि जिस द्रव्य की सहायता से आत्मा शाश्वत सिद्ध गति प्राप्त करता है वही
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द्रव्य कुछ कम है तो विमान वासी देव होता है। अतः वही द्रव्य है जो कि पुण्य है।
कोई भी आत्मा नरक में स्वयं नहीं जाती जाना नहीं चाहती परंतु उसका पाप ही उसे ले जाता है ठीक इसी तरह देव लोक में या मोक्ष में भी जाने की इच्छा होने पर नहीं जा सकते जब तक देव लोक के लिए योग्य व मोक्ष योग्य यथा योग्य पुण्य प्राप्त नहीं करें।
एक विशुद्ध सामायिक का फल 12,59,25,235 पल्योपम देवलोक का आंका गया है तो यह भी पुण्य ही है और बिना सामायिक (चरित्र) के मोक्ष नहीं।
भगवती सूत्र शतक 23.5 में संवर निर्जरा का जो उल्लेख है वह पाप से संबंधित है पुण्य से नहीं जैसे कि इस प्रश्नोत्तरों के आगे देवलोक में उत्पन्न होने संबंधी प्रश्नोत्तर है जिसमें ये ही कारण बताये गये है।
यहां यह प्रश्न हो सकता है कि सराग संयम से देवलोक और वीतराग संयम से मोक्ष मिलता है तो प्रश्न यह होता है कि जब आत्मा ग्यारवें गुणस्थान (उपश्म) मे आती है तब सराग संयम ही है तो सात लव आयुष्य अधिक होने से मोक्ष में कैसे जा सकती है ? और मोक्ष में चली जाती तो अगीयार में से पहले जिसे संयम ही कहा जाता है तो ? उसका प्रतिफल भोगना बाकी रह गया जिसकी पूर्ती कहां होगी ? प्रज्ञापना सूत्र गाथा नंबर 124 में तो उपशांत कषाय को वीतराग संयम ही कहा गया है फिर भी देव लोक में जाना पड़ता है अगीयर में गुण स्थान के आगे बारहवें व तेरहवां गुण स्थान आता है जहां केवल ज्ञान हो जाता है तो क्या अब तक किया हुआ पुण्य कहां खतम किया जाता है क्या बारहवें गुणस्थान में पुण्य खतम करने की कोई क्रिया की जाती है या केवल ज्ञान होने के बाद ऐसी कोई क्रिया की जाती है जिससे पुण्य खतम हो जाय ? यह भी निर्विवाद है कि अगीयार बारहवें व तेरहवें गुण = 5 स्थान में भी चारित्र है ही और चारित्र पुण्य का कारण है बिना चारित्र के मोक्ष में जा नहीं सकते, जाय तो टिक नहीं सकते। __ सूक्ष्म नगोद के जीव भी मोक्ष के स्थान में जाते है किन्तु क्षण भर भी टिक नहीं सकते । त्रस नाड़ी के अंदर जीव जब विग्रह गति करते है तो वे
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भी मोक्ष के स्थान जाते अवश्य है किन्तु टिक नहीं सकते, इन सबका कारण पुण्य का अभाव, कमी । हम जिस पुण्य के क्षय से मोक्ष की बात करते है वह यह है कि :
पौदगलिक सुख की इच्छा से की गई धार्मिक क्रिया और इस द्वारा उत्पन्न पुण्य जिसे भोगना पड़ता है और इसी कारण से तीर्थंकर जैसी महान आत्माओं को तीर्थंकर के भव में जानते हुए भी संसारिक सुख का उपभोग करना पड़ता है जिसे प्रचलित भाषा में भोगावली कर्म कहते है।
_पुण्य सोने की बेड़ी है यह बात भी वहीं लागू होती है कि जो आत्मा आत्मिक लक्ष होते हुए क्रिया करते करते जब आयु क्षय हो जाती है और मोक्ष में जाने जितना पुण्य नहीं होने से देवलोक में जाना पड़ता है उसे वहां देवलोक में दुःख महसूस होता है कि अगर मैं कुछ और आधिक पुरूषार्थ करता तो मोक्ष में चले जाता अब फिर समय लगेगा मनुष्य भव में जाना पड़ेगा उसे देवलोक का सुख भी दुःख रूप में लगता है जिसे सोने की बेड़ी कहा जाता है । दस बजे गाड़ी से जाने वाला व्यक्ति स्टेशन पर पांच मिनट विलम्ब से आवे और गाड़ी निकल जाय तब दूसरी गाड़ी में जाने के लिए 4-6 घंटे स्टशन पर बैठना कष्टकारक होता है ठीक इसी तरह मोक्षार्थी आत्मा को देवलोक में दुःख रूप होता है ?
एक व्यक्ति अपने घर से चलकर उपाश्रय में गुरू महाराज के पास जाता है उपाश्रय में जाकर गुरू महाराज के पास बैठ जाता है तब उसके पैर जिससे वह चलकर आया है अपने साथ ही है उपाश्रय के बाहर नहीं है उपाश्रय में बैठ जाने के बाद पैर निष्क्रिय हो जाते है क्योंकि वहां उपयोग की जरूरत नहीं है ठीक इसी तरह आत्मा पुण्य के साथ ही मोक्ष में जाती है वहां जरूरत नहीं होने से उपयोग नहीं होता अतः अक्षय रहता है। अतः इन सभी तथ्यों पर विचार करें यही एक हार्दिक अभिलाषा ।
- हजारीमल
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नमस्कार सूत्र अथवा नवकार जब हम बोलते है तो कभी-कभी आधुनिक प्रथानुसार ॐ नमो अरहंयाणं ॐ नमो सिद्धाणं ........
इस तरह ॐ को साथ में जोड़कर बोलते है तो प्रश्न यह होता है कि जैसे :
1. ॐ नमो अरहंताणं व ॐ नमो सिद्धांणं का जब हम उच्चारण करते है तो उन वाक्यों का अर्थ क्या होगा ? याने ॐ को साथ जोड़ने पर क्या अर्थ होगा? क्या यह भाषा की दृष्टि से सही है ? 2. जहां तक आगम सूत्रों में इसका उल्लेख है वह नमो अरहताणं नमो सिद्धाणं...... इस तरह से है तो क्या हम आगम सूत्रों की उपेक्षा से आशातना के भागीदार नहीं बनेंगे ? 3. ॐ को नवकार के साथ जोड़ने से क्या वृद्धि होती है अथवा नहीं
जोड़ने से क्या कमी रह जाती है ? '4. ॐ यह संस्कृत भाषा का शब्द है उसका वैदिक साहित्य में विशेष उपयोग हुआ है जबकि नवकार प्राकृत भाषा की रचना है और प्राकृत भाषा में ॐ का उल्लेख "ओम' इस तरह से होगा जिसका अर्थ निस्सार होता है तो क्या यह विसंगति नहीं होगी? 5. ॐ का अर्थ हम आधुनिकता में पंच परमेष्टि नाम से करते है अर्थात पंच परमेष्टि का यह संक्षिप्त संयुक्त शब्द है ऐसा कहा जाता है।
( अरहंत, अशरीरि, आचार्य, उपाध्याय मुनि) इस तरह का समाधान किया जाता है तो क्या यह उचित हो सकता है ? उदाहरणार्थ :- "प्रसिद्ध आचार्य श्री सिद्धसेन दिवाकर" ने नवकार का संक्षिप्त करण किया था : कि नमो अहंत सिद्धा - चार्योपाध्याय सर्वसाधुभ्यः इसके लिए उनके गुरू ने अनुचित ठहराकर अति कठिन “पारांचित” प्रायाश्चित दिया था जिसे "सिद्धसेनजी" ने स्वीकार किया था । तो क्या हम इससे भी अधिक संक्षिप्त करने से संक्षिप्त उच्चारण करने से अधिक प्रायश्चित के भागीदार नहीं बनेंगे?
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6. कलिकाल सर्वज्ञ प्रसिद्ध आचार्य श्री हेमचन्द्राचार्य = ऽ जी ने अपने योग शास्त्र में ॐ का उपयोग आत्मार्थी के लिए निषेध किया है तो क्या हमारी यह धार्मिक क्रिया आत्मार्थी नहीं है ? अतः इन तथ्यों पर गहराई से सोचे समझे और चिन्तन करें ।
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नमो लोए सव्व साहुणं
(स्पष्टी करण) पंच परमेष्टि सूत्र अर्थात नवकार के पांच पद है जिसमें प्रथम पद नमो अरहंताणं, द्वितीय - नमो सिद्धाणं, तृतिय, नमो आयरियांण, चतुर्थ - नमो उवज्झायांण एवं पंचम पद में - नमो लोए सव्वसाहुणं इस तरह से है।
उपरोक्त चार पदों में लोए सव्व ये शब्द नहीं है जबकि पंचम पद में ये दो शब्द अधिक है जिसका स्पष्टीकरण विभिन्न प्रकार से किया जाता है। चारों पदों में भी ये शब्द जोड़ देना चाहिए तो कोई कहता है कि साधुओं में गच्छ आदि भेद है इसलिए सव्व शब्द है लोए शब्द का तो कोई स्पष्टीकरण करता ही नहीं अतः कहीं कहीं लोए शब्द को निकाल भी दिया गया है।
इसका वास्तविक स्पष्टीकरण यह होता है कि जो कि निम्न है :
1. प्रथम पद "अरहंत भगवंत से है 'अरहंत' कोई भी हो विभिन्न क्षेत्रों में भी हो फिर भी सभी के गुण द्रव्य एवं भाव से समान होते है कोई अंतर नहीं होता । द्रव्य से अष्ट महा प्रतिहार्य और भाव केवल ज्ञान केवल दर्शन आदि । ये सभी के होते ही है और समान ही होते है कोई भेद नहीं होता अतः सव्व शब्द की आवश्यकता ही नहीं रहती।
2. द्वितीय पद 'सिद्ध' भगवंत से है इनके भाव गुण ही है और सभी के है और समान है कोई भेद नहीं अतः यहां भी सर्व शब्द की आवश्यकता नहीं रहती।
3. त्रतिय पद "आचार्य" भगवंत से है यह पद एक अधिकारी की तरह * है जिनका कर्तव्य सभी को समान होता है निभाना पड़ता है। अपने खुद
का संयमी जीवन जीते हुए, अन्य संयमी आत्माओं का जो जिनकी निश्रा में है, उनके संयम निर्वाह में आने वाले अतिचारों का उत्पन्न समस्याओं आदि का निराकरण करना होता है। ये सभी कार्य छद्मस्थ अवस्था में होने के कारण एवं समान अधिकार होने के कारण यहां भी सर्व शब्द की आवश्यकता नहीं रहती (केवली भगवंत किसी को उपालंभ देते नहीं)
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4. चतुर्थ पद 'उपाध्याय' भगवंत से है इनका कर्तव्य सूत्रों को विशेषकर साधुओं को पढ़ाना होता है यह अधिकार सभी उपाध्यायों को समान होने से भिन्नता नहीं रहती अतः यहां पर भी सर्वशब्द की जरूरत नहीं रहती। 5. अब यहां पंचम पद इसमें 'लोए-सव्व" ये दो शब्द अधिक है जिनका होना जरूरी है कारण साधूपद में कई भेद है जिसमें मुख्य भेद तीन है वे ये है :
A. तीर्थंकर भगवंत दीक्षा लेने के बाद और केवल ज्ञान होने के पहले 'निग्रंथ' कहे जाते है वैसे साधू भी निग्रंथ कहे जाते है परंतु छद्मस्थ अवस्था में संपूर्णतया निरतिचार का संयमी जीवन (कठिन परिसह उत्पन्न होने पर भी) तीर्थंकर भगवंत का ही होता है। B. वे साधू साध्वी जिन्हें केवल ज्ञान हो चुका है जिन्हें स्नातक भी कहा जाता है। C. वे साधू साध्वी जो अभी छद्मस्थ अवस्था में है और विभिन्न गुण स्थानों में भी है।
देखिये :- तत्त्वार्थ सूत्र की गाथा पुलाक बकुश, कुशील निर्ग्रथा स्नातका निर्गंथा :
अतः इन सभी भेद प्रमेदों के कारण पंचम पद में सर्व शब्द का उपयोग हुआ है। अब यहां लोए' शब्द का प्रश्न जिसका समाधान यह है कि :A. "मनुष्य लोक" जहां मनुष्यों का जन्म मरण होता है। B. 'मानुषोत्तर लोक" जहां मनुष्यों का जन्म मरण होता नहीं, हो सकता
नहीं
1. तीर्थंकर प्रभू अपने क्षेत्र से ही बाहर जाते नहीं जाने का कारण भी नहीं अतः मानुषोत्तर लोक में जाते नहीं मनुष्य लोक में ही रहते हैं। 2. सिद्ध भगवंत का स्थान भी मनुष्य लोक की समश्रेणी में अर्थात मनुष्य लोक के विस्तार जितने स्थान में लोकाग्र में स्थाई रूप से ही रहते है जाने आने का प्रश्न ही नहीं । 3-4. आचार्य और उपाध्याय इन दोनों पदों के अधिकारियों की अपनी
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अपनी जवाबदारी होने से अन्यत्र जा नहीं सकते कारण वश जाना पड़े तो उत्तराधिकारी को नियुक्त करके ही जाना पड़ता है ताकि अपनी अनुपस्थिती में कार्यभार संभाल सकें ।
उस समयावधि तक ये साधू पद में आ जाते है अतः आचार्य उपाध्याय की पद स्थिति में मानुषोत्तर लोक में जाना नहीं हो सकता। 5. साधू पद में जो छद्मपस्थ साधू है उनमें से कई साधू लब्धि धारक भी होते है 'विद्या चारण' जंघा चारण आदि ये साधू कभी-कभी अपनी लब्धि के प्रयोग से 'नंदीश्वर' आदि द्वीपों में जोकि मनुष्य लोक के बाहर मानुषोत्तर लोक में है वहां भी जाते है कुछ समय रहकर वापिस अपने स्थान पर आ जाते है याने साधू पद के इस भेद में साधुओं का वहां रहना भी संभव है अतः इन कारणों से लोए शब्द का उपयोग साधू पद में हुआ है जो हेतु पूर्वक कहा जा सकता है।
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"दर्शनाचार"
निसंकिअ : निकंखिअ, निवितिगच्छा अमूढ दिट्ठीअ, उववुह, थिरिकरणे, वच्छल पभावणे अट्ठ
इस तरह से दर्शनाचार के आठ आचार है जिसको नहीं पालने से अतिचार लगता है।
1) निसंकिअ :- अर्थात शंका रहित रहना । प्रश्न :- शंका किसकी ? उत्तर :- जैन दर्शन के प्ररूपक तीर्थंकर प्रभू अर्थात पंच परमेष्टि में प्रथम परमेष्टि 'अरहंत प्रभू के प्ररूपति, तत्व, सिद्धांत में उनके वचनों में शंका नहीं रखना 2) निखिअ :- आकांक्षा रहित अर्थात इच्छा नहीं करना इसका अर्थ वर्तमानकालीन विद्वान यह करते है कि अन्य दर्शन की इच्छा नहीं करना। (यह अर्थ ठीक नहीं लगता ) 3) निवितिगिच्छा :- दुगंछा रहित (दुगंछा नहीं करना) अर्थात जैन दर्शन के साधू साध्वीओं का आचार स्नान आदि शारीरिक शोभा नहीं करना । इन कारणों से ये साधू साध्वी शरीर से मैले भी हो सकते है इनके कपड़े भी मैले कुचले हो सकते है आज भी कई एक साधू कपड़े धोते ही नहीं अथवा साबुन से नहीं धोते । अतः मैले होने से ऐसी परिस्थितियों में इनके बाह्य शरीर व कपड़े देखकर दुगंछा नहीं करना ।
मात्र आत्मिक गुणों की तरफ लक्ष्य देकर प्रशंसा, अनुमोदन ही करना चाहिये।
कोई-कोई विद्वान इसका एक अर्थ और करते है कि धर्म के फल में शंका नहीं करना, किन्तु यह अर्थ अप्रासंगिक है। अहेतु पूर्वक है, यह अर्थ प्रथम आचार 'निसूंकिअ' के अंतर्गत आ सकता है क्योंकि इसमें शंका रहित होने का आचार है। 4) अमूढ़ दिट्ठीअ :- मूर्खता रहित दृष्टी अर्थात तत्त्वों को समझने के लिए 70) क्या यह सत्य है ?
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बुद्धि का उपयोग करना क्योंकि जैन दर्शन के कई विषय सिद्धांत अति गहन होते है। 5) उववुह :- उपेक्षो रहित होना अर्थात उपेक्षा नहीं करना प्रश्न :- किसकी उपेक्षा नहीं करना ? उत्तर :- जैन दर्शन के अनुयायी विशेषकर साधू साध्वी जो कई एक चारित्राचार तो अच्छी तरह से पालते हो किन्तु ज्ञानोपार्जन में कमजोर हो अथवा आचार्य आदि पदवी से रहित हो तो भी उनकी उपेक्षा नहीं करना अनदेखा नहीं करना सारांश :- दर्शन के अनुयायीओं में यदि मूलगुण में क्षति न हो तो अन्य गुण कम ज्यादा होने पर भी गुणीजनों की यथाशक्य यथा योग्य सत्कार सन्मान सेवा सुश्रुषा आदि करना। 6) थिरी करणे :- जैन दर्शन का कोई भी अनुयायी किसी कारणवश दर्शन से अर्थात श्रद्धा से गिर रहा हो तो उसको यथा शक्य यथा संभव स्थिर करना।
7) वच्छाल :- वात्सल्यता रखना। समान दर्शन के अनुयायीओं को बात्सल्य भाव से देखना उदाहरणार्थ :- एक पिता के दो पुत्र आपस में एक दूसरे के प्रति वात्सल्य भाव से स्नेह रखते है इस तरह से स्नेह भाव रखना। 8) प्रभावना :- जैन दर्शन की प्रभावना हो ऐसा कार्य करना । जैसे :- तप त्याग, दान एवं अच्छा आचरण अर्थात न्याय निती आदि में अडिग रहना।
इस तरह से आठ आचारों का वर्णन है जिसमें हम देख सकते है कि आचार नं. 1-3-4-5-6-7-8 ये सभी सातों आचार जैन दर्शन से संबंधित है जबकि आचार नं. 2 निकरिवअ का अर्थ संबंध अन्य दर्शन से किया जाता है अगर इसका अर्थ संबंध अन्य दर्शन से होता तो कोई विशिष्ट विशेषण शब्द का उल्लेख जरूर होता वह नहीं है इत: इसका अर्थ भी जैन दर्शन से ही होना चाहिए
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यही भ्रम है जिसका वास्तविक अर्थ यह होना चाहिये कि जैन दर्शन की कोई भी क्रिया चाहे वह सामयिक हो तीर्थंकर प्रभू का कीर्तन हो भक्ति हो, गुरूवंदन हो, तप, त्याग कोई भी हो उसके प्रतिफल की इच्छा नहीं करनी चाहिए विशेषकर पौवालिक सुख की इच्छा ( आकांक्षा) बिल्कुल नहीं करनी चाहिये ।
जैन दर्शन में विषक्रिया गरलक्रिया का वर्णन आता है
विषक्रिया :- अर्थात कोई भी धार्मिक क्रिया अनुष्ठान इसभवन के पौगलिक सुख की इच्छा से करना विषक्रिया कही जाती है विष मारने का काम करता है अतः निषेध है ।
गरलक्रिया :- भवांतर में देवलोक आदि के सुख की इच्छा से धार्मिक क्रिया करना गरलक्रिया कही जाती है यह भी त्याज्य है । अतः निकंखिअ याने ऐसी आकांक्षा ( इच्छाओं) से रहित होकर जैन दर्शन की धार्मिक क्रिया करने का है। अन्य दर्शन से कोई संबंध नहीं ।
किन्तु विषम काल की विडंबनाओं से आज कई क्रिया अनुष्ठान इन्हीं उद्देश्यों से किये जाते है।
अतः वास्तविक अर्थ गौण हो गया है और एक काल्पनिक अर्थ करके इतिश्री की जाती है जो अत्यंत विचारणीय है।
वैदिक दर्शन के धार्मिक ग्रंथ गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है कि कार्य करते रहना धर्म है किन्तु फल की इच्छा नहीं करना चाहिए ।
तो जैन दर्शन तो लोकोत्तर दर्शन है इसमें प्रतिफल की इच्छा करना सर्वथा अनुचित है।
जब प्रतिफल की इच्छा (आकांक्षा) ही नहीं करना है तो प्रतिफल की शंका का प्रश्न ही नहीं रहता ।
अतः विति गच्छा का दूसरा अर्थ (धर्म के प्रतिफल में शंका नहीं करना) अप्रासंगिक हो जाता है ।
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________________ अशोक वृक्ष सुर पुष्प वृष्टिः दिव्य ध्वनि भामंडलं दुंदुमिश्च: सिहासनम् चामरात्र पत्रम् सत प्रातिहार्याणि जिनेश्वराणाम दर्शनं देव देवस्यः दर्शनं सम्यक्तव प्राप्तनम् दर्शनं चारित्र सोपानम, दर्शनं मोक्ष साधनम सत्य पंथे चालवा जिज्ञासा आगम मर्म नी भरपूर करवा भाग्य ने चाहना जिन चरण नी www.jainelibrary.