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5) सम्मेलन में दिये गये प्रमाणों से भी वर्तमान कालीन देव द्रव्य की प्रथम व्याख्या “संबोध प्रकरण" में उपलब्ध होती है जो विक्रम की आठवीं शताब्दि का ग्रन्थ है उसके पहले के किसी ग्रंथ में या किसी आगम सूत्र में इसका कोई उल्लेख नहीं है अतः इसका यहीं निष्कर्ष निकलता है कि आचार्य श्री देवधि गणी द्वारा आगम सूत्रों के लिपीबद्ध होने तक इसकी ऐसी व्याख्या मान्यता नहीं थी।
6) आर्थिक धनरूपी द्रव्य को लोकोत्तर देव के नाम से करना, कराना और जिनका पंच परमेष्टि में स्थान है उनको इस विषय में पड़ना अनुचित लगता है यह विषय ग्रहस्थों का हो सकता है न देव का, न गुरु का, साधु वर्ग के लिये अपने संयम निर्वाहार्थ रजोहरण आदि उपकरणों को गुरु द्रव्य कहां जाय तो शायद अनुचित नहीं होगा । साधु वर्ग की जरुरीयात, उपकरण, विहार, वैयावच्च आदि की पूर्ति करना, कराना जहां जैसी जरुरत हो तन,मन, धन से करना ग्रहस्थ का अपना कर्तव्य है, और मुनिराज द्वारा दिया गया 'धर्म लाभ' ग्रहस्थ के लिये तभी सार्थक है जबकि वह यथा शक्य कर्तव्य का पालन करें।
हजारीमल, 38/9, मीनशन बाजार, करनूल - 518001
34) क्या यह सत्य है ?
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