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अंजन शलाका
श्री जैन श्वेताम्बर मूर्ति पूजक समाज में एक यह प्रथा है अनिवार्य विधी वह है "अंजन शलाका" बिना अंजन शलाका के प्रतिमा पूजनीय नहीं होती पूजी नहीं जा सकती यह दृढ़ मान्यता है और यथावत चालू है । इसके बारे में सोचा भी नहीं जाता कि यह मान्यता विधि जैन सिद्धांत से सहमत है या विपरित ।
1) भगवान महावीर स्वामी के निर्वाण बाद लगभग एक हजार वर्ष बाद आगम सूत्र लिखे गये है उस समय तक यह प्रथा "अंजन शलाका" विधि नहीं थी यदि यह प्रथा होती तो आगाम सूत्रों में विधि का विधान आदेश या निषेध किसी भी तरह का कोई न कोई उल्लेख होता, अतः यह निश्चित हो जाता है कि यह प्रथा (विधि) बाद में चालू हुई है ।
2) अंजन शलाका प्राण प्रतिष्ठा का उल्लेख निर्वाण कलिका, आचार दिनकर आदि ग्रंथों में आता है यह समय चैत्यवासियों के साम्राज्य का था। चैत्यवासियों ने कई नवीन क्रिया अनुष्ठान प्ररुपित किये, तद्नुसार ग्रंथ भी लिखे गये उन्हीं के अनुसार ये क्रियाये अंजन शलाका एवं प्राण प्रतिष्ठा आदि आज भी चालू है जो कि जैन आचारों से विरुद्ध है ।
3) "अंजन शलाका" अंजन याने आंखों में डालने का द्रव्य जैसे महिलाये अपने श्रृंगार के रूप में काजल का उपयोग करती है, शलाका याने जिसके द्वारा अंजन किया जाता है । यह क्रिया अर्थात प्रतिमा की अंजन शलाका जैन आचार्यों एवं मुनिराजों द्वारा की जाती है ।
4) अंजन शलाका करने का मुहरत चाहे किसी भी दिन, तिथि, वार का हो समय (टाइम) तो मध्यरात्रि याने रात के बारह बजे ही होता है रात होने से लाइट, रोशनी करना भी जरुरी हो जाता है ।
5) अंजन शलाका करने वाले आचार्य या मुनिराज को यह क्रिया करते वक्त सोने के आभूषण भी पहनना होता है तो हमें यहां यह सोचना है कि कंचन कामिनी के त्यागी को कंचन कामिनी के त्यागीओं द्वारा, रात के अंधेरे में, रोशनी के सहारे से ऐसी क्रिया करना क्या उचित हो सकता है क्या जैन साधू का आचार हो सकता है ?
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क्या यह सत्य है ? ( 35
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