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पूण्य - पाप की चतुर्भंगी
1. 'पुन्यानुबंधी पुण्य'
बंध : तीर्थंकर प्रभू की आज्ञा संपन्न एवं हेतू संपन्न धार्मिक अनुष्ठान क्रिया करना, और ऐसा करते हुए जिन आत्माओं ने पूर्णता प्राप्त करली है अप्रतिपाति गुण को धारण कर लिया है अर्थात मोक्ष को प्राप्त कर लिया है अथवा इसके लिये तनतोड़ मेहनत कर रहे है उनकी प्रशंसा करना अनुमोदन पुण्यानुबंधी पुण्य क्रे बंध का कारण है ।
उदय :- विविध पौद्गलिक सुख सामग्री प्राप्त होने पर भी वैराग्य को धारण कर संजम जीवन जीने की इच्छा करना वह पुन्यानुबंधी पुण्य का उदय है
उदीरणा :- पांच समिति, त्रण गुप्ति, वान सयंमी आत्मा दोष रहित भिक्षा की जो प्रवृत्ति करते है पुण्यानुबंधी पुण्य की "उदीरणा" है
सत्ता :- पुण्यानुबंधी पुण्य की बंध होने पर भी जब तक उदय में नहीं आता तब तक सत्ता में रहता है
(2) "पापा नु बंधी पुण्य"
बंध :- भौतिक अर्थात पौद्गलिक सुखों की इच्छाओं से धार्मिक अनुष्ठान, आराधना क्रिया करना 'पापानुबंधी पुण्य" की बंध होना है ।
उदय :- उदयावस्था में विविध प्रौद्गलिक सुख सामग्री प्राप्त होने पर आत्मभान भूला कर प्रौद्गलिक सुख में मस्त रहना 'उदय' है
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उदीरणा : आत्मिक सुख को सर्वथा भूलाकर मात्र प्रौद्गलिक सुख सामग्री प्राप्त करने का ही तनतोड़ उद्यम करना ।
सत्ता :- जब तक उदय में नहीं आता सत्ता में रहता है ।
(3) "पुण्यानुबंधी पाप"
बंध :- जो कोई आत्मा पौद्गलिक सुख की प्राप्ति का पुरुषार्थ करता है वैसा करते हुए जो भी षटकाय जीवों की विराधना होती है उसका मन में
क्या यह सत्य है ? ( 45
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