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उपाध्यानादि क्रिया कराते वक्त तीन गढ़ बनाकर, चौमुखी प्रतिमायें स्थापित कराते है तब वहां पर अमुक क्रिया करते करते गुरु वंदन की क्रिया भी आती है तब गुरु महाराज (क्रिया कराने वाले) अन्य व्यक्ति द्वारा प्रतिमाओं के आगे कपड़े का पर्दा कराते है और बाद में गुरु वंदन की क्रिया कराते है ताकि गुरु वंदन करते वक्त अरहंत प्रभू की प्रतिमाजी दिखाई न दें । जबकि ओली तप के आराधना की क्रिया करते वक्त सिद्धचक्र यंत्र के सम्मुख यह नियम नहीं रखा जाता ।
7) आगम सूत्रों में ओली तप या सिद्धचक्र का वर्णन नहीं है।
8) सिद्ध भगवंत अरुपी है वर्ण, गंध आदि से रहित है जबकि इस यंत्र में सिद्ध भगवंत का लाल वर्ण बताया जाता है जिसका कोई आधार नहीं ।
9) ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप ये चारों आत्मा के गुण है ये चारों गुण किसी न किसी आत्मा के अंदर ही रहते है आत्मा से पृथक नहीं रह सकते । गुण गुणी के अंतर्गत ही रहता है जैसे शक्कर के अंदर मिठास है परन्तु शक्कर और मिठास अलग अलग नहीं हो सकते, वैसे ही गुण गुणी से पृथक नहीं हो सकते ।
(नवकार) पंच परमेष्टि सूत्र में पंच परमेष्टिओं को ही नमस्कार का वर्णन है ज्ञान दर्शन, चारित्र, तप का अलग से वर्णन नहीं वंदन नहीं ये चारों ही गुण पंच परमेष्टिओं में निहित है, फिर भी सिद्धचक्र यंत्र में अलग अलग बताना विभिन्न क्रिया करने का कोई औचित्य नहीं रहता।
10) पन्यास श्री कल्याण विजयजी (जालौर) अपनी पुस्तक निबंध निचय में निम्न प्रकार से सिद्धचक्र के बारे में उल्लेख करते है। A. श्रीपाल कथा विक्रमी पनरहवी शती की एक प्राकृत कथा है। B. जैनों में आज से 1500 वर्ष पहले मंत्र, तंत्र की चर्चा तक नहीं थी। C. प्रस्तुत सिद्धचक्र यंत्रोद्वार पूजन विधि जैन सिद्धांत से मेल नहीं खाने वाली एक अगीतार्थ प्रणीत अनुष्ठान पद्धति है।
11) एवं श्री सिद्धचक्र स्याराधको विधि साधक : सिद्धाख्योऽसौ महामंत्र यंत्रः प्राप्नोति वांछितम ||१|| 26) क्या यह सत्य है ?
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