________________
जयवीराय
आचार्य श्री रामचन्द्र सूरीश्वरजी एवं आचार्य श्री भूवन भानू सूरीश्वरजी के बीच रामचन्द्र जयवीराय से संबंधित जो मतभेद उत्पन्न हुए थे और कुछ समय बाद दोनों ने एक मत से समाधान कर समाचार पत्रों में प्रकाशित कराया था, उसी के संदर्भ में दोनों आचार्यों को संयुक्त पत्र लिखा गया जिसकी नकल ही यहां प्रकाशित की जाती है।) मार्गशिष शुक्ल 3/2514 1) आचार्य श्रीराचन्द्र सूरीश्वरजी, मुंबई 2) आचार्य श्री भुवन भानू सूरीश्वरजी, कोल्हापुर __वंदना के साथ मालूम हो कि जैन पत्र D. 13-11-87 के मुख पृष्ठ में पढ़ने से मालूम हुआ कि आप दोनों के बीच में जयवीराय से संबंधित "इष्ट फल सिद्धि" के अर्थ पर मतभेद हुआ था, वह सुखद समाधान हो गया, जिसके लिये खुशी की बात है।
। आप दोनों वर्तमानकालीन वृद्ध विद्वान आचार्य है अतः आपको इसकी गहराई में जाना चाहिये था । आप लिखते है कि राजमार्ग तो संसार ना बंधन थी छुटी मोक्ष पामवा माटे छे, छतांपण बाल जीवों ने माटे शास्त्रकारों इह लौकिक आशय वालु धर्म उपादेय गणे छे । इस पर आप विचार करे कि बाल जीव किसे कहा जाय ?
क्या आप जैसे भी बाल जीवों की कोटी में आयंगे ? यदि जयवीराय सूत्र की संपूर्ण अर्थ की गहराई में जाय तो, जैन दर्शन के रहस्य जानने वाले और उस पर अटूट श्रद्धा रखने वाले के लिये जयवीराय सूत्र कहने की जरुरत ही नहीं रहती और इसमें आने वाले इष्ट फल सिद्धि का विवाद ही नहीं उठता।
जयवीराय सूत्र को प्राणिधान सूत्र कहा जाता है। प्राणिधान का अर्थ संस्कृत शब्दकोश में भावपूर्वक चिंतन, मनन, एकाग्रता कहा गया है जबकि हमारे पंचाशक सूत्र में प्रकरण चार गाथा 29 में इसी अर्थ के अलावा एक और अर्थ किया गया है वह है, "मांगणी, प्रार्थना, विनयपूर्वक
16) क्या यह सत्य है ?
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org