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अपकाय में आता है जिस तरह पृथ्वीकाय में सभी परमाणुओं से अपनी सेवा अर्पित की है इसी तरह अपकाय के परमाणुओं को भी अपनी आत्मा द्वारा परिणित कर सेवा अर्पित करनी पड़ती है यहां पर भी पुद्गल परावर्तनकाल जितना समय लग जाता है।
इसके बाद तेउकाय में आना पड़ता है और उसके बाद वाउकाय में आना पड़ता है और उसके बाद वनस्पति काय में आना पड़ता है हर एक में पुद्गल परावर्तन काल समय लग जाता है वनस्पति काय बाद मनुष्यभव प्राप्त होता है। मनुष्यभव के औदारिक शरीर के लिए इन पांचों की ही आवश्यकता वे इन्द्रिय तेइन्द्रिय चउरिन्द्रिय की आवश्यकता ही । इसके लिए जैन शास्त्र मे मारूदेवी माता का उल्लेख ठोस प्रमाण है। मारूदेवी माता का जीव वनस्पति काय से सीधा मनुष्यभव में आता है। मनुष्यभव के ओदारिक शरीर के लिए इन पांचों की ही आवश्यकता वे इन्द्रिय ते= इन्द्रिय चउरिन्द्रिय आदि के जीवों के शरीर की सहायता की आवश्यकता नहीं होती । अतः इन पांचोंकाय के द्वारा सेवा अर्पित किये जाने के कारण अब यह पांचों सुगमता से उपलब्ध हो जाते है इन पांचोंकाय में जीव भटकते हुए भी कहीं पर भी राग द्वेष का निमित्त नहीं मिला । अतः अब तक यह जीव राग द्वेष रहित था । सिर्फ इसने अपने शरीर द्वारा दूसरों को सेवा अर्पित की है वह भी अकाम वृति से।
इतना कष्ट इतनी लंबी अवधि तक सहन करने से मनुष्य भव मिलता है इसलिए मनुष्य भव महादुर्लभ कहा जाता है यहां पर मनुष्य भव प्राप्त होने के बाद इस मनुष्य भव की यह विशेषता है कि यहां मन है, वचन है, काय है अतः सोच सकता है, बोल सकता है व इच्छानुसार करने की कोशिश कर सकता है यहां पर सोचने की शक्ति होने से अपने योग्य अपने पास वस्तु होने से या दसूरे के पास दिखाई देने से उस वस्तु पर राग उत्पन्न होता है और उस वस्तु का किसी अन्य द्वारा छिनने पर या प्राप्त करने में बाधा डालने पर द्वेष उत्पन्न होता है। इससे कर्मों का आश्रव शुरू होता है और फिर बंध और यहीं से चौरासी लाख योनी की भव भ्रमण चालू हो जाता है।
मारू देवी माता की आत्मा जैसे किसी को शुरू में ही तीर्थंकर भगवंत का संपर्क हो जाय और उनसे गाढ़ अनुबंध हो जाय तो चौरासी लाख
60) क्या यह सत्य है ?
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