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________________ योनी में भटकने की जरूरत नहीं पड़ती और मोक्ष मिल जाता है ऐसा क्वचित ही होता है। सामान्यता मनुष्य के भव से कर्मों का उपार्जन करते हुए भटकना पड़ता है और जब तीर्थंकर भगवंत का शासन मिल जाय, उन पर श्रद्धा हो जाय तो भव भ्रमण की एक सीमा हो जाती है। इन चौरासी लाख जीव योनी में भटकते हुए जीवों में से कईओं को कभी-कभी पृथ्वीकाय आदि में जाना भी पड़ता है तो इस पृथ्वीकाय आदि में वह ज्यादा से ज्यादा सित्तर कोड़ा-कोड़ी सागरोपम तक ही रहना पड़ता है क्योंकि आठों कर्मों में मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति सित्तर कोड़ा-कोड़ी सागरोपम ही है और इस अकेन्द्रिय पने में अन्य कर्म करने की सजा भुगतना है अर्थात मोहनीय कर्म द्वारा अधिकांश पुण्य समाप्त कर देने से जाना पड़ता है अत: यहां जीव को पुदगल परावर्तन काल जितनी अवधि की आवश्यकता नहीं रहती। प्रश्न : जो जीव व्यवहार राशी में से पृथ्वीकाय आदि में गया है वह नये कर्म बांधता नहीं और पुराने नष्ट करता है तो मोक्ष में क्यों नहीं जाता? उत्तर :- कर्म या क्रिया करना इसके दो पहलू है देखिये तत्वार्थ सूत्र अध्याय छ: गाथा 2-3-4 सः आश्रवः शुभः पुण्यस्थ, अशुभ: पास्यः मोहनीय कर्म द्वारा पुण्य खत्म कर देने के कारण आत्मा को पृथ्वीकाय आदि में याने एकेन्द्रिय में जाना पड़ता है यहां पर फिर अपने द्वारा सेवा अर्पित होने से लेणदार बनता है याने कुछ पुण्य प्राप्त करता है। जब तक आत्मा शुभकर्म करके पुण्य प्राप्त नहीं करता तब तक मोक्ष में नहीं जा सकता मोक्ष में जाने के लिए एकांत पुण्य की जरूरत है अगर उसमें अंश मात्र भी पाप रह जाने पर मोक्ष में जाने को बाधा रूप होता है। पुण्य भी पूरा चाहिए अगर पुण्य की मात्रा भी थोड़ी कम हो तो अटक जाना पड़ता है और अधूरे पुण्य को पूरा करने पर ही मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। क्या यह सत्य है ? (61 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001506
Book TitleKya yah Satya hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHajarimal Bhoormal Jain
PublisherShuddh Sanatan Jain Dharm Sabarmati
Publication Year1994
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size4 MB
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