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2) समवायांग सूत्र के शुरूआत में ही नमुत्थुणं जैसा स्तवन सूत्र है उसमें भी "जे अइया सिद्धा" जे अ भवि संतिण गये काले" ये वाक्य नहीं है।
___3) सूत्रकृतांग सूत्र के अंदर एक प्रसंग का उल्लेख है जिसमें आर्य उदयक भगवान महावीर के शिष्य गौतम स्वामी से कहते है कि तुम्हारे धर्माचार्य जो प्रत्याख्यान कराते है वह दुष प्रत्याख्यान है जिसका कारण बताते है कि जैसे किसी ग्रहस्थ को त्रस जीव की हिंसा नहीं करने का प्रत्याख्यान कराते है तब वहीं जीव जब स्थावरकाय में जाता है तब स्थावर की हिंसा में त्रस का जो जीव उत्पन्न हुआ है उसकी हिंसा हो जाती है अतः यह प्रत्याख्यान बराबर नहीं, दुष प्रत्याख्यान है।
उत्तर में गौतम स्वामी बताते है कि :- आर्य उदयक- त्रस का जीव मरकर स्थावर में जब उत्पन्न होता है तब त्रस हिंसा के प्रत्याख्यानी के हाथ से उस स्थावर की हिंसा होने पर प्रत्याख्यान का भंग होता है यह कथन ठीक नहीं क्योंकि "त्रस नाम कर्म" के उदय से ही जीव त्रस कहलाते है। परंतु जब उनका त्रस गति का आयुष्य क्षीण हो जाता है त्रस काय की स्थिति छोड़कर जब स्थावर में उत्पन्न होता है तब स्थावर नाम कर्म का उदय होने से स्थावर कहा जाता है अतः यह दुषःप्रत्याख्यान नहीं है। (स्कंध दो अध्याय सात)
___इस उदाहरण से भी यहीं निष्कर्ष निकलता है कि तीर्थंकर नाम कर्म के उदय से ही तीर्थंकर कहे जा सकते है पहले नहीं । यदि हम तीर्थंकर के जीव को द्रव्य तीर्थंकर मानकर और जिनका भाव निक्षेपा वंदनीय है उनके पहले के तीनों निक्षेपा वंदनीय है ऐसा मान ले तो भविष्य में होने वाले कई तीर्थंकर के जीव स्थावर में भी हो सकते है जिनकी विराधना, हिंसा होना स्वाभाविक है। एवम हमारे दैनिक व्यवहार में कई जीव तिर्यंच मनुष्य भी है उनकी ताडना प्रताडना आदि विराधना जो होती है उनकी विराधना का प्रतिफल (यदि तीर्थंकर का जीव होने से) द्रव्य तीर्थंकर कहा जाय तो तीर्थंकर की विराधना का फल होता है तो उससे बचना संभव ही नहीं है। उपरोक्त गौतम स्वामी के उदाहरण से स्पष्ट हो जाता है कि जैसे त्रस नाम कर्म के उदय से त्रस कहे जाते है ठीक इसी तरह "तीर्थंकर नामकर्म" के उदय से ही तीर्थंकर कहे जाते है और तीर्थंकर
क्या यह सत्य है ? (11 Jain Education International
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