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________________ और भी विचित्र बात तो यह है कि काउस्सग व इसकी थुई भगवान के सामने ये सभी कार्य (पूजा, वंदन आदि) करने के बाद किया जाता है। क्या हमने पूजा आदि गलत कार्य किये है जिसके प्रायश्चित रूप में यह काउस्सग की क्रिया की जाती है ? नहीं क्योंकि अन्य काउस्सग करते वक्त तस्स उत्तरी बोलकर याने इसके पहले प्रायश्चित रूप इरियावहीयं जो किया है उसकी विशेष शुद्धि के लिये याने पाप कार्य को सर्वथा निर्घात करने के लिये काउस्सग किया जाता है अतः भगवान के पूजा वंदन निमित काउस्सग करना पूजा वंदन को पाप कार्य समझना होता है जो सर्वथा अनुचित है कदाचित यह प्रश्न हो कि भगवान के सामने काउस्सग नहीं कर प्रतिक्रमण में तो कर सकते है :- उत्तर नहीं क्योंकि निमित हेतु वहीं है अतः यह भी उचित नहीं । चौथी थुई जो कि अविरति देवि देवताओं से संबंधित है जिसकी अनिवार्यता के लिये कई कृत्रिम सूत्रों के अतिरिक्त एक आगम सूत्र का प्रमाण भी पेश किया जाता है वह है "ठाणांग" सूत्र अत: पहले इसी पर विचार करें । ठाणांग सूत्र पंचम ठाणा द्वितीय उद्देशा (गाथा 134) पंचम ठाणोहिं जीवा सुलभ बोधियत्ताण कम्मं पकरेति, तं जहाः अरहंताणं वण्णं वदमाणे अरहंत पणत्तस्स, धम्मस्स वण्णं बदमाणे, आयरिय उवज्झायाणं वण्णं वदमाणे चउवण्णस्स संघस्य वण्णं वदमाणे- विवक्क तब बंभ चेराणं देवाणं वण्ण वदमाणे :- अर्थ पांच कारणों से जीव सुलभ बोधि कर्म उपार्जन करता है (1) अरहंतों का वर्णवाद (2) अरहंत प्रज्ञप्त धर्म का वर्णवाद (3) आचार्य उपाध्याय का वर्णवाद (4) चतुर्विध संघ का वर्णवाद (5) विवक्क तपबभचेर देवों का वर्णवाद । इस गाथा में पांच स्थानों के गुणगान की बात है संख्या पांच बताई गई है जिसमें से चार तक तो किसी को कोई आपत्ति नहीं पांचवें में विवक्क तव बंभ चेराण देवाणं इस से संबंधित है यही उलझन है और इसी का भी एक खास आधार मानकर देवताओं को स्थान चौथी थुई में दिया गया है |जबकि तव बंभ चेराणं शब्द को गौण कर दिया है उस पर लक्ष्य ही नहीं दिया जाता है अत: वास्तविकता यह है कि :- उपरोक्त चारों पद या पदाधिकारियों के अतिरिक्त जो आत्माये परिपूर्णता से प्रकर्षता से तप करते है ब्रह्मचर्य पालते है वे देव के सहश है। जैसे ब्रह्म देवता, धर्म देवता 20) क्या यह सत्य है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001506
Book TitleKya yah Satya hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHajarimal Bhoormal Jain
PublisherShuddh Sanatan Jain Dharm Sabarmati
Publication Year1994
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size4 MB
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