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पंच परमेष्टि सूत्र ( नवकार)
जैन दर्शन के सभी समुदायों का पंच परमेष्टि सूत्र ( नवकार) पर अटल श्रद्धा है, भक्ति है जिसका होना भी जरुरी है । इसके प्रथम पद का उच्चारण सर्वत्र व्यापक रूप से " नमो अरिहंताणं" इस तरह से किया जाता है । इसके प्रथम पद का लगभग नवीन छपी हुई सभी पुस्तकों में यहां तक कि आगम सूत्रों की नवीन छपाई में भी इस तरह का उल्लेख है अर्थात् “नमो अरिहंताणं" है जिसका अर्थ होता है- अरि= नाम दुश्मन, शत्रु । हंताणं = का अर्थ है मारना (नाश करना) इस तरह से शुत्र को मारने वाले को नमस्कार हो, ऐसा समझ कर नमस्कार किया जाता है । यहां विवेचन में शत्रु अर्थात् राग-द्वेष कषाय- ऐसा स्पष्टीकरण करके समझाया जाता है लेकिन इसके गहराई में जाने से यह वाक्य जैन दर्शन के मौलिक सिद्धांत से विपरित मालूम होता है एवं आगम सूत्रों से भी विपरित है जिसका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार से है
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शत्रु अर्थात् दुश्मन शब्द द्वेष का द्योतक है और मारना नाश करना हिंसा जन्य है । राग ही द्वेष का कारण है और द्वेष ही मारने का प्रेरक है ऐसे राग द्वेष द्योतक शब्द "शत्रू' व मारना, नाश करना आदि हिंसा जन्य कषाय स्वरूप शब्दों के विशेषणों से वीतराग शासन के महान विभूतिओं को संबोधित करना, विशेषण लगाना कैसे उचित हो सकता है । वास्तव में आत्मा का कोई शत्रु नहीं। राग द्वेष आत्मा द्वारा स्वयं के उपार्जित दोष है दुर्गुण है । अतः इनको छोड़ना भी अपने स्वयं का काम है यदि इनको छोड़ते जाये और नवीन उपार्जित नहीं करे तो एक दिन ऐसा आ सकता है कि इनसे छुटकारा मिल जाये ।
ज्ञानी किसी को मारते नहीं, नाश करते नहीं, जैसे कंचन कामिनि राग द्वेष के कारण है तो उसे छोड़ देते है । मारते नहीं नाश करते नहीं । शब्दार्थ भी उपयोगी होना चाहिये ।
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मूलभूत आगम सूत्रों में यह वाक्य ही अलग तरह से है वह है " नमो अरहंताणं" जिसका अर्थ :- अरहं योग्यता प्राप्त पूजनीय आदि ताणं = अर्थात् शरण भूत आश्रय दाता ऐसे योग्यता प्राप्त पूजनीय महान विभुतियों को नमस्कार !
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क्या यह सत्य है ? (5 www.jainelibrary.org