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________________ "दर्शनाचार" निसंकिअ : निकंखिअ, निवितिगच्छा अमूढ दिट्ठीअ, उववुह, थिरिकरणे, वच्छल पभावणे अट्ठ इस तरह से दर्शनाचार के आठ आचार है जिसको नहीं पालने से अतिचार लगता है। 1) निसंकिअ :- अर्थात शंका रहित रहना । प्रश्न :- शंका किसकी ? उत्तर :- जैन दर्शन के प्ररूपक तीर्थंकर प्रभू अर्थात पंच परमेष्टि में प्रथम परमेष्टि 'अरहंत प्रभू के प्ररूपति, तत्व, सिद्धांत में उनके वचनों में शंका नहीं रखना 2) निखिअ :- आकांक्षा रहित अर्थात इच्छा नहीं करना इसका अर्थ वर्तमानकालीन विद्वान यह करते है कि अन्य दर्शन की इच्छा नहीं करना। (यह अर्थ ठीक नहीं लगता ) 3) निवितिगिच्छा :- दुगंछा रहित (दुगंछा नहीं करना) अर्थात जैन दर्शन के साधू साध्वीओं का आचार स्नान आदि शारीरिक शोभा नहीं करना । इन कारणों से ये साधू साध्वी शरीर से मैले भी हो सकते है इनके कपड़े भी मैले कुचले हो सकते है आज भी कई एक साधू कपड़े धोते ही नहीं अथवा साबुन से नहीं धोते । अतः मैले होने से ऐसी परिस्थितियों में इनके बाह्य शरीर व कपड़े देखकर दुगंछा नहीं करना । मात्र आत्मिक गुणों की तरफ लक्ष्य देकर प्रशंसा, अनुमोदन ही करना चाहिये। कोई-कोई विद्वान इसका एक अर्थ और करते है कि धर्म के फल में शंका नहीं करना, किन्तु यह अर्थ अप्रासंगिक है। अहेतु पूर्वक है, यह अर्थ प्रथम आचार 'निसूंकिअ' के अंतर्गत आ सकता है क्योंकि इसमें शंका रहित होने का आचार है। 4) अमूढ़ दिट्ठीअ :- मूर्खता रहित दृष्टी अर्थात तत्त्वों को समझने के लिए 70) क्या यह सत्य है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001506
Book TitleKya yah Satya hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHajarimal Bhoormal Jain
PublisherShuddh Sanatan Jain Dharm Sabarmati
Publication Year1994
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size4 MB
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