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बुद्धि का उपयोग करना क्योंकि जैन दर्शन के कई विषय सिद्धांत अति गहन होते है। 5) उववुह :- उपेक्षो रहित होना अर्थात उपेक्षा नहीं करना प्रश्न :- किसकी उपेक्षा नहीं करना ? उत्तर :- जैन दर्शन के अनुयायी विशेषकर साधू साध्वी जो कई एक चारित्राचार तो अच्छी तरह से पालते हो किन्तु ज्ञानोपार्जन में कमजोर हो अथवा आचार्य आदि पदवी से रहित हो तो भी उनकी उपेक्षा नहीं करना अनदेखा नहीं करना सारांश :- दर्शन के अनुयायीओं में यदि मूलगुण में क्षति न हो तो अन्य गुण कम ज्यादा होने पर भी गुणीजनों की यथाशक्य यथा योग्य सत्कार सन्मान सेवा सुश्रुषा आदि करना। 6) थिरी करणे :- जैन दर्शन का कोई भी अनुयायी किसी कारणवश दर्शन से अर्थात श्रद्धा से गिर रहा हो तो उसको यथा शक्य यथा संभव स्थिर करना।
7) वच्छाल :- वात्सल्यता रखना। समान दर्शन के अनुयायीओं को बात्सल्य भाव से देखना उदाहरणार्थ :- एक पिता के दो पुत्र आपस में एक दूसरे के प्रति वात्सल्य भाव से स्नेह रखते है इस तरह से स्नेह भाव रखना। 8) प्रभावना :- जैन दर्शन की प्रभावना हो ऐसा कार्य करना । जैसे :- तप त्याग, दान एवं अच्छा आचरण अर्थात न्याय निती आदि में अडिग रहना।
इस तरह से आठ आचारों का वर्णन है जिसमें हम देख सकते है कि आचार नं. 1-3-4-5-6-7-8 ये सभी सातों आचार जैन दर्शन से संबंधित है जबकि आचार नं. 2 निकरिवअ का अर्थ संबंध अन्य दर्शन से किया जाता है अगर इसका अर्थ संबंध अन्य दर्शन से होता तो कोई विशिष्ट विशेषण शब्द का उल्लेख जरूर होता वह नहीं है इत: इसका अर्थ भी जैन दर्शन से ही होना चाहिए
क्या यह सत्य है ? (71
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