Book Title: Kya yah Satya hai
Author(s): Hajarimal Bhoormal Jain
Publisher: Shuddh Sanatan Jain Dharm Sabarmati

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Page 69
________________ 4. चतुर्थ पद 'उपाध्याय' भगवंत से है इनका कर्तव्य सूत्रों को विशेषकर साधुओं को पढ़ाना होता है यह अधिकार सभी उपाध्यायों को समान होने से भिन्नता नहीं रहती अतः यहां पर भी सर्वशब्द की जरूरत नहीं रहती। 5. अब यहां पंचम पद इसमें 'लोए-सव्व" ये दो शब्द अधिक है जिनका होना जरूरी है कारण साधूपद में कई भेद है जिसमें मुख्य भेद तीन है वे ये है : A. तीर्थंकर भगवंत दीक्षा लेने के बाद और केवल ज्ञान होने के पहले 'निग्रंथ' कहे जाते है वैसे साधू भी निग्रंथ कहे जाते है परंतु छद्मस्थ अवस्था में संपूर्णतया निरतिचार का संयमी जीवन (कठिन परिसह उत्पन्न होने पर भी) तीर्थंकर भगवंत का ही होता है। B. वे साधू साध्वी जिन्हें केवल ज्ञान हो चुका है जिन्हें स्नातक भी कहा जाता है। C. वे साधू साध्वी जो अभी छद्मस्थ अवस्था में है और विभिन्न गुण स्थानों में भी है। देखिये :- तत्त्वार्थ सूत्र की गाथा पुलाक बकुश, कुशील निर्ग्रथा स्नातका निर्गंथा : अतः इन सभी भेद प्रमेदों के कारण पंचम पद में सर्व शब्द का उपयोग हुआ है। अब यहां लोए' शब्द का प्रश्न जिसका समाधान यह है कि :A. "मनुष्य लोक" जहां मनुष्यों का जन्म मरण होता है। B. 'मानुषोत्तर लोक" जहां मनुष्यों का जन्म मरण होता नहीं, हो सकता नहीं 1. तीर्थंकर प्रभू अपने क्षेत्र से ही बाहर जाते नहीं जाने का कारण भी नहीं अतः मानुषोत्तर लोक में जाते नहीं मनुष्य लोक में ही रहते हैं। 2. सिद्ध भगवंत का स्थान भी मनुष्य लोक की समश्रेणी में अर्थात मनुष्य लोक के विस्तार जितने स्थान में लोकाग्र में स्थाई रूप से ही रहते है जाने आने का प्रश्न ही नहीं । 3-4. आचार्य और उपाध्याय इन दोनों पदों के अधिकारियों की अपनी 68) क्या यह सत्य है? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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