________________
"आत्मा का अनादिपन"
आज जैन सिद्धांत को मानने वाले मुख्य तीन संप्रदाय है श्वेतांबर, दिगम्बर, स्थानकवासी इन तीनों की एक ही मान्यता है कि कर्म जीव के साथ अनादि काल से लगे हुए है। अतः इस विषय पर किसी का लक्ष्य ही नहीं जाना स्वभाविक है। लेकिन तात्विक एवं सैद्धांतिक दृष्टि की गहराई में जाने से तथ्य कुछ और ही निकलता है।
जीव के साथ कर्म अनादि है इसके लिये सोने की खान का उदाहरण दिया जाता है यह उदाहरण कहां तक तर्क की कसौटी पर टिकता है पहले इसी को सोचें । जैन दर्शन की सैद्धांतिक मान्यता है कि दो या दो से अधिक परमाणु मिलने पर स्कंध बनता है अगर तीन परमाणुओं के स्कंध के दो टुकड़े किये जाय तो एक भाग में एक परमाणु आयगा और दूसरे भाग में दो परमाणु आयेंगे, मगर किसी भी भाग में डेढ़ परमाणु नहीं आयगा नहीं आ सकता इस अविभाज्य भाग को ही अणु या परमाणु कहते है और इन परमाणुओं के मिलने से जो स्कंध बनता है वह अस्थिर है अर्थात स्कंध टुटते रहता है और जुड़ते रहता है, स्कंध के टुटने पर उसमें से टुटे पड़े हुए परमाणु किसी भी अन्य स्कंध में मिल सकते है मिल भी जाते है । अब प्रश्न यहीं होता है कि जब एक परमाणु का दूसरे परमाणु के साथ मिलकर रहना अस्थिर है तो सोने का परमाणु व मिट्टी का परमाणु भी जिसका अपना अपना अस्तित्व अलग अलग है आज जो एक सोने का परमाणु एक मिट्टी के परमाणु के साथ है वहीं सोने का परमाणु कल किसी दूसरी मिट्टी के परमाणु के साथ रहेगा क्योंकि परमाणु सोने का हो या मिट्टी का मिलते रहते है और टुटते रहते है फिर भी अपना- अपना अस्तित्व अलग-अलग कायम रहता है क्योंकि द्रव्य की अपेक्षा से परमाणु शाश्वत है और पर्याय की अपेक्षा से जो कि स्कंध है अ-शाश्वत है । अ-अनादि है। सोने का परमाणु मिट्टी के परमाणुओं के साथ मिलकर जब स्कंध बनता है तब हमें इस मिट्टी में सोने का अंश दिखाई देता है हम अपनी जरूरत अनुसार उसे अग्नि आदि प्रयोग द्वारा उस सोने के परमाणुओं को मिट्टी के परमाणुओं से अलग करते है तब सोने के परमाणुओं से जो स्कंध बनता है तब हमें वह केवल सोना ही दिखाई देता है। सुक्ष्म बुद्धि से सोने का परमाणु सदा अलग ही था और
क्या यह सत्य है ? (53 For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org