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"आत्मा का विकास"
आत्मा अनादिकाल से कर्म रहित थी, जहांकि वह अव्यवहार राशी में थी । कर्म रहित होने पर भी दुःखमय था । आत्मा की यह अवस्था अविकसित दशा है । आत्म द्रव्य एक ऐसा द्रव्य है जो कि परिणामी स्वभाव का है उसे अन्य द्रव्य में परिणीत होने की आवश्यकता है। देखिये नव तत्व की गाथा : “परिणाम जीव मुत्तं याने जीव और पुदगल परिणामी द्रव्य है और इसके लिए सबसे पहले पुदगलास्ति परिणाम काय है की आवश्यकता है पुदगल की सहायता के बिना आत्मा कुछ भी करने में असमर्थ है। चरमशरीरी आत्मा के लिए भी उत्कृष्ट पुद्गल बृज ऋषभ नाराच संघयण की आवश्यकता है देखिये तत्त्वार्थ सूत्र की गाथा नंबर 27 अध्याय नवम उत्तम संहनन स्येकाग्र चिन्ता "निरोधो ध्यानम्"
किसी भी शहर में दो व्यक्ति प्रथम जाते है तो पहले ठहरने के लिए जगह की आवश्यकता होती है अब जिस व्यक्ति के पास पैसे है वह व्यक्ति तो किसी भी जगह होटल आदि में ठहरकर सुख सुविधा प्राप्त कर सकता है जबकि अन्य व्यक्ति जिसके पास पैसे नहीं है भटकना पड़ता है उसे कोई ठहरने नहीं देता । जब वही व्यक्ति अपने शरीर द्वारा दूसरों को उस शहर में रहे हुए व्यक्तियों को सेवा अर्पित करता है तब कुछ प्राप्त करता
अव्यवहार राशी के जीवों के पास कुछ भी नहीं होने से अर्थात् शरीर नहीं होने से सर्वथा खाली है अत: उसे भटकते रहना पड़ता है। एक क्षण भी उसे ठहरने के लिए कोई स्थान नहीं है याने शरीर नहीं है। इस तरह भटकते रहने का दुःख इतना है कि संसार के अन्य दुःख इस दुःख के आगे नगण्य है। इस भटकते रहने के दुःख को सिद्धांत में "श्वासो श्वास" में साढे सत्रह हैं भव करने जैसे दुःख का वर्णन है अतः अव्यवहार राशी के जीवों को भटकते रहने का महान दुःख है वह भी अनादि काल से ।
अव्यवहार राशी के जीवों की संख्या इतनी अधिक है कि जितने पुद्गल परमाणु है वे सब भरे पड़े है ऐसी जगह याने पुद्गल नहीं है कि एक भी जीव इसमें आकर रह सके इसलिए जब इन पुद्गलास्तिकाय में से एक जीव मोक्ष में जाता है तब अव्यवहार राशी के एक जीव को
58) क्या यह सत्य है ?
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