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धनार्थी धन माप्नोति, पदार्थी लभते पदम् भार्यार्थी लभते भार्या, पुत्रार्थी लभते सुतान् ||२|| सौभाग्यार्थी च सौभाग्यं, गौरवार्थी च गौरवं
राज्यार्थी च महाराज्यं लभतेऽ स्यैव तुष्टितः ॥३॥ एन तपो विधायित्यो, योषिऽपि विशेषतः वनध्या निन्द्यानि दोषाणं पयच्छन्ति जलांजलिम ||४||
अर्थ :इस प्रकार श्री सिद्धचक्र का आराधक विधिपूर्वक साधना करता हुआ महामंत्र यंत्र मय बनकर मनोवांछित फल को प्राप्त करता है ||१||
धन का इच्छुक धन को स्त्री का अभिलाषी स्त्री को, पदाधिकार का इच्छुक पदाधिकार को, पुत्रार्थी पुत्र को प्राप्त करता है | ||२|
सौभाग्यार्थी सौभाग्य को, गौरव का अर्थी गौरव को, राज्य का अर्थी महाराज्य को प्राप्त करता है ||३|| यह सांसारिक सुखों की अभिलाभा है इस (सिद्धचक्र) तप की आराधना करने वाली स्त्रियों भी खासकर वन्ध्यात्व, मृत वत्सात्व आदि दोषों को जलांजलि देती है ।
उपरोक्त श्लोकों में वर्णित जिन आदि पदों के आराधक पुरुष व स्त्रियों को पौद्रलिक फलों का प्रलोभन दिया गया है जो कि परमेष्टि पदों की व तप आदि का उपहास मात्र है। अतः उपयुक्त कथन शास्त्र विरुद्ध ही नहीं सम्यक्त्व को बाधक भी है । जिनेन्द्र देव से निष्काम भक्ति करना ही आगम प्रमाण है ।
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क्या यह सत्य है ? (27
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