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मुनिराज उदाहरणार्थ गौतम स्वामी दीक्षा पर्याय में छद्मस्थ अवस्था में "दानांतराय" का उदय है क्योंकि दानोतराय का क्षय होने से ही केवल ज्ञान होता है। यहां दान को दो पहलुओं से सोचना है दान देना और दान लेना।
दान कभी एक हाथ से होता नहीं अर्थात् दान एक व्यक्ति एक तरफ से होता नहीं, हो सकता नहीं, दान लेने वाला भी चाहिये अतः दान तभी हो सकता है अन्यथा नहीं । हां त्याग हो सकता है। दान नहीं । जब तक दान लेने वाला न हो हम लाख प्रयत्न करें दान दे नहीं सकते । तो जो मुनिराज छद्मस्थ अवस्था में, दानांतराय के उदय अवस्था में आहार का दान लेते है और ज्ञान दान देते है वे ही मुनिराज केवल ज्ञान होने पर भी "आहार दान" लेते रहे तो छद्मस्थ अवस्था याने दानांतराय के उदय अवस्था में और केवल ज्ञान होने से “दानांतराय" के क्रय होने पर भी आहार दान लेते रहे लेना पड़े तो दानांतराय की उदय अवस्था में और दानांतराय के क्षय होने की अवस्था में स्नातसय के क्षय होने की अवस्था में दानांतराय संबंधी क्या अन्तर पड़ा ? "दानांतराय" क्षय होने से क्या प्राप्ति हई ? यह एक गहराइ से सोचने का विषय है। दानांतराय का क्षय होना ही दान लेने की आवश्यकता नहीं रहती यही दानांतराय के क्षय की विशेषता है। विशेषता हो सकती है।
3. आहार नहीं लेने से शरीर में कमजोरी आ जाय यह भी एक प्रश्न है। तो छद्मस्थ अवस्था में जहां वीर्यातराय का उदय है आहार नहीं लेने से शरीर में कमजोरी आ सकती है किन्तु जबकि वीर्यातराय के क्षय से ही केवल ज्ञान होता है तो वीर्यातराय के क्षय से भी कमजोरी आ जाय शरीर नहीं रहे तो वीर्यातराय के क्षय से क्या अन्तर पड़ा ? क्या विशेष प्राप्ति हुई ? वीर्यातराय के क्षय होने पर भी कमजोरी आ जाय या शरीर टिके नहीं तो वीर्यातराय संबंधी न तो कोई अन्तर पड़ा न कोई प्राप्ति हुई । अतः यही कारण है वीर्य अर्थात जो एक शक्ति है उसमें आने वाली बाधायें अर्थात अंतराय का क्षय हो जाने से कोई बाधा अंतराय आ न सकती यही वीर्यातराय के क्षय की विशेषता है महानता है । केवलीयों की आयुष्य निश्चित है उसमें एक समय का भी अन्तर पड़ता नहीं चाहें आहार करें या न करें। उदाहणार्थ : 48 ) क्या यह सत्य है ?
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