Book Title: Kya yah Satya hai
Author(s): Hajarimal Bhoormal Jain
Publisher: Shuddh Sanatan Jain Dharm Sabarmati

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Page 39
________________ जिन मंदिर निर्माण में जैन सिद्धांत विशाललोचनदलं, प्रोद्यदन्ताशु केसरं । प्रातर्वीर जिनेन्द्रस्य, मुख पद्य पूनातु नः ।। स्व. पूज्य मुनिराज श्री हंस विजयजी की प्रेरणा से विभिन्न मंदिरों में प्रतिमा संबंधी व पूजाविधी संबंधी, मूलभूत सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए कई सुधार किये गये हैं। जैसे अरहंत भगवंत अर्थात् तीर्थंकर देव अठारह दोष रहित एवं बारह गुण सहित होते हैं अतः इसका पूरा ध्यान रखा गया हैं। अठारह दोष निम्न प्रकार से हैं । (1) दानांतराय (2) लाभांतराय (3) गोतांतराय (4) उपभोगांतराय (5) वीर्यातराय (6) हास्य (7) रति (8) अरित (9) भय (10) शोक (11) दुगंछा (12) सकाम (13) मिथ्यात्व (14) अज्ञान (15) निद्रा (16) अविरति (17) राग (18) द्वेष । अ 1. दानांतराय : अरहंत भागवंत निरंजन है कुछ दे सकते नहीं इसके लिये मंदिर में यक्ष-यक्षिणी की प्रतिमायें स्थापित कर पूजा करना बहुमान करना यह अरहंत भगवंत के दानांतराय को सुचित करता है अतः इस मंदिर में यक्ष-यक्षिणी की पूजा नहीं की जाती अरहंत भगवंत की ही पूजा की जाती है। 2. लाभांतराय : मंदिर के निर्माण के लिये व निभाव के खर्चे के लिये टीपकरना याने किसी के पास मांगना या पूजाभक्ति की नीलामी करना याने चढावे बोलना इस तरह से रुपये जमा करना लाभांतर का सूचक है क्योंकि जरूरत पड़ने पर उसी को नहीं मिलता जिसको लाभांतराय का उदय है । जब कि अरहंत भगवंत के लाभांतराय का क्षय हो चुका है अतः इसमें चढावा बोलने की या टीपमांडने की पद्धति नहीं रखी गई है। 3. भोगांतराय : मंदिर में अरहंत भगवंत की प्रतीमा को नित्यस्नान याने प्रक्षालन करना अनिवार्य है, भक्त की इच्छा, संजोग, अनुकुलता नहीं होने पर भी मजदूर याने नौकर द्वारा भी करवाना ही पड़े यह भगवान के भोग की सूचकता है जबकि अरहंत भगवंत के भोगांतराय का क्षय हो चुका है अतः इस मंदिर में नित्य स्नान कराने की अनिवार्यता नहीं रखी गई है। भक्त की इच्छा होने पर भक्त ही कर सकता है। 38 ) क्या यह सत्य है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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