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लोगस्स सूत्र
आज हमारी धार्मिक क्रिया सूत्रों में लोगस्स सूत्र का भी एक खास महत्व है। वर्तमान कालीन जिस लोगस्स सूत्र का हम उपयोग करते है उसकी रचना की मान्यता को हम लोग भगवान ऋषभदेव के समय तक ले जाते है इसका कारण मात्र हमारी रुढ परंपरा ही है रूढ परंपरा के कारण हमारा इस तरफ लक्ष्य ही नहीं जाता, कि इसमें सिद्धांत से कितनी विपरितता है विरुद्धता है।
सर्वप्रथम हमें यह सोचना होगा कि अरहंत प्रभू (तीर्थंकर) शलाका पुरुष है शलाका पुरुष कभी एक ही समय में एक ही जगह मिलते नहीं । संयुक्त बैठने का प्रसंग कभी आता ही नहीं । तो एक साथ वंदन का प्रसंग भी कभी नहीं आता नहीं आ सकता ।
जब इतना निर्णय हो जाता है तो फिर क्या कारण है कि इस लोगस्स में हम एक साथ वंदन करते है ? जैसे :- उसम मजिअंच वंदे, संभव मभिणं दणंच, सुमइंच, पउमप्प हं सुपासं जिणंच चंद पहं वंदे । क्या यहां पर अरहंत प्रभू का शलाका पण मिट जाता है या चला जाता है ? नहीं ऐसा कभी होता नहीं, तो हम ऐसा करने से शालाकापन की गरिमा, को मिटाने के अपराधी बनते है आशाधना, विराधना के कारण बनते है।
इसके लिये अनुयोग द्वार सूत्र जो कि एक आगम सूत्र है जिसमें गाथा सं. 203 में स्पष्ट उल्लेख है कि कीर्तन कैसे करें ? यथा पूर्वानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी, अनानुपूर्वी आदि ।
यहां पर एक तीर्थंकर के बाद दूसरे तीर्थंकर का कीर्तन करने का उल्लेख है किन्तु एक साथ दो या दो से अधिक की कीर्तन करने का उल्लेख नहीं है। शायद किसी भी आगम सूत्र में एक साथ वंदन, कीर्तन का उल्लेख नहीं है । जबकि वर्तमानकालीन लोगस्स में एक साथ वंदन कीर्तन किया जाता है । तो क्या हम आगम सूत्रों के उपेक्षा, विरुद्ध आचरण करने से दोष के भागीदार नहीं बनेंगे ? अच्छा या बुरा करणी का फल तो मिलेगा ही । यह सब क्यों? ___और आगे जाकर हम तीर्थंकर प्रभु से प्रसन्न होने की कामना करते है।
क्या यह सत्य है ? (13
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