Book Title: Kya yah Satya hai
Author(s): Hajarimal Bhoormal Jain
Publisher: Shuddh Sanatan Jain Dharm Sabarmati

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Page 13
________________ नाम कर्म के उदयावस्था में उनकी जो भी विराधना होगी वह तीर्थंकर की विराधना होगी और उसका प्रतिफल भी तीर्थंकर की विराधना का मिलेगा। इसके पहले वह जीव जिस योनी में स्थावर में होगा, तो स्थावर की हिंसा का फल मिलेगा अगर त्रस काय में तिर्यंच या मनुष्य जो भी पर्याय होगा वहीं नाम कर्म का उदय होगा, उसी की विराधना का फल मिलेगा। ठीक इसी तरह भविष्य में होने वाले तीर्थंकर को द्रव्य तीर्थंकर मानकर आज वंदन करने से उसका फल भी उसी अवस्था का अर्थात् जिस नाम कर्म का उदय होगा उसी का फल मिल सकेगा । न कि तीर्थंकर अवस्था का जैसे कि गौतम स्वामी का आर्य उदयक को समाधान है। 4) आज हमारे दैनिक जीवन में भी जब कोई व्यक्ति दिक्षा लेने का निर्णय कर लेता है दीक्षा की तैयारी भी शुरू हो जाती है दीक्षा का दिन भी आ जाता है फिर भी उसे कोई वंदन नहीं करता रास्ते में मिलने पर भी दीक्षार्थी को कोई "मत्थएण वंदामि नही कहता (मुमुक्षु है, दीक्षार्थी है इतना ही कहते है कहा जाता है और कुछ समय बाद जब वह हाथ में रजोहरण लेकर "करेमि भंते" का पच्चक्खाण ले लेता है तब वह साधु कहा जाता है और हर किसी के मुंह से याने जैन दर्शन के श्रद्धालु के मुंह से "मत्थएण वंदामि" शब्द निकल पड़ते है यह प्रत्यक्ष प्रमाण है कि वहीं जीव कुछ समय पूर्व ग्रहस्थ होने के नाते उससे ग्रहस्थ का व्यवहार किया जाता था । निक्षेपा की दृष्टि से वहीं जीव द्रव्य साधु कहा जायगा परंतु उसके साथ साधु जैसा व्यवहार नहीं होता, नहीं हो सकता । और अगर वहीं साधु वहीं जीव कुछ समय बाद दीक्षा छोड़ दे तब वह फिर ग्रहस्थ कहलायेगा और उसका व्यवहार भी ग्रहस्थ जैसा ही होगा । उस व्यक्ति को जानते हुए भी उसे कोई “मत्थएण वंदामि" नहीं कहता, नहीं कहेगा। दीक्षा छोड़ने के बाद व दीक्षा लेने के पहले वहीं जीव द्रव्य निक्षेपा से साधु कहा जाय फिर भी वंदनीय नहीं होता । अतः इस तरह हम जिसका भाव निक्षेपा वंदनीय है उसके चारों निक्षेपा वंदनीय है ऐसा सिद्धांत मान ले और उसका जीव द्रव्य निक्षेपा मान ले तो अव्यवहारिक हो जायगा । अकरणीय हो जायगा जो सर्वथा अनुचित है। 12) क्या यह सत्य है? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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